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________________ अनादिकालीन कर्मबद्ध कहा है तथा उन कमों का कर्ता एवं भोक्ता भी जैन दर्शन के समान स्वयं आत्मा को माना है। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन पुराण तथा जैन धर्म में है। इस कर्म-तत्त्व ज्ञान द्वारा वे विश्व-वैचित्र्य का समाधान तर्कानुकूल पद्धति से करते हैं। कर्म सिद्धान्त इनका अविभाज्य अंग है। कर्म सिद्धान्त को न केवल भारतीय धर्मों ने अपनाया बल्कि पाश्चात्य धर्मों ने भी माना है। एक सुप्रसिद्ध अग्रेज लेखक का कथन है-“कर्म एक वैज्ञानिक नियम है। इसे एशियाई धर्मों ने अपनाया था और यूरोप की धार्मिक श्रद्धा में भी उसका स्थान था. परन्तु ईसा के पाँच सौ वर्ष बाद कुस्तुन्तुनिया की धर्म संगति ने ईसा के उपदेशों से उसे निकाल दिया। इस प्रकार कुछ मूर्ख मनुष्यों के मण्डल ने पश्चिम को इस वैज्ञानिक सिद्धान्त से वंचित किया। इस समझ से नैतिक जीवन स्वतः उद्भूत होगा। पश्चिम को पूर्वजन्म और कर्म के सिद्धान्त शीघ्र ही अपनाने की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि ये सिद्धान्त व्यक्ति एवं राष्ट्र को अपने उत्तरदायित्व का जो भान कराते हैं, वह कोई भी असंगत वाद या मत नहीं करा सकता।"१५० ___ कर्म विज्ञान का महत्त्व यद्यपि कई धर्मों में स्वीकृत है परन्तु जैन धर्म में इसकी विशेष व्याख्या को देखकर किसी ने कहा है “जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता देने में हर अन्य धर्म से बढ़कर है। जो कुछ कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं उनके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने के बाद कर्म हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ेंगे। मेरा स्वातन्त्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा दायित्व भी है। मैं स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, पर मेरा चुनाव अन्यथा नहीं हो सकता और उसके परिणामों से मैं बच नहीं सकता।"५१ 000 कर्मवाद / 110
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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