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________________ पण्डिताई के लिए, दिखावे के लिए प्राप्त किया गया ज्ञान कभी भी मुक्ति प्रदान नहीं करता है। आचरण भेद की अपेक्षा से प्रत्येक वर्णाश्रम के पृथक्-पृथक् आचार घोषित किये गये हैं तथा कुछ सामान्य आचारों का भी विधान है जिनका पालन सभी के लिए आवश्यक है। कर्मवाद का महत्त्व जैनदर्शन में कर्म की चर्चा ही नहीं, कर्म सम्बन्धी अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी जैन दार्शनिकों द्वारा लिखे गये हैं। बंधन तथा मुक्ति के कारण स्वयं आत्मा में ही बताये गये हैं-"बंध-प्पमोक्खो अज्झत्थेव।१४४ ऐसी कोई अन्य शक्ति नहीं है जो उसे राजा से रंक और रंक से राजा बना दे। पराश्रय की प्रवृत्ति से विपरीत स्वनिग्रह को महत्त्व दिया गया है, जिससे दुःख विमुक्त होकर आत्मस्थ बना जा सके। इस प्रकार आत्मविश्वास पैदा करते हुए जैन संस्कृति का कथन है-"पुरिसा! तुमं मेव तुम मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि” अर्थात् हे मानव ! तू स्वयं ही अपना मित्र है, बाहर सहायकों की खोज में क्यों भटक रहा है ? 145 कर्म सिद्धान्त की महत्ता प्रतिपादित करते हुए हिरियन्ना का कथन है “कर्म के सिद्धान्त के अनुसार हमारा भविष्य पूरी तरह से हमारे ही हाथों में रहता है। फलतः यह सिद्धान्त सदा सम्यक् आचरण के लिए प्रोत्साहन देता है।९४६ - इसी दृष्टि को सम्मुख रखते हुए पुराणों में भी असत्कार्यों से बचने की प्रेरणा दी गई है। उनके अनुसार “प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक करना चाहिए क्योंकि अपने द्वारा किये गये पाप-पुण्य का फल सभी प्राणियों को भोगना होता है। किसी को सताना कदापि उचित नहीं है क्योंकि पीड़ित करने वाले को सुख की प्राप्ति नहीं होती। जो मनुष्य दूसरों का बुरा नहीं करना चाहता, उसका अकारण ही कभी अनिष्ट नहीं होता।८ संसार के कारणभूत कर्म की प्रभुता व्यक्त करते हुए पद्मपुराणकार का आशय है कि कुछ लोग ग्रहों की प्रशंसा करते हैं, और कुछ प्रेत तथा पिशाचों की तारीफ करते हैं, कुछ देवों के प्रशंसक हैं, तो कुछ लोग औषधियों की प्रशंसा का बखान करते हैं। कुछ मंत्र की, कुछ सिद्धि की, कुछ लोग बुद्धि की, तो कुछ लोग पराक्रम की तारीफ किया करते हैं। उद्यम-साहस-धैर्य-नीति और बल के विषय में कुछ-कुछ लोग प्रशंसा के पुल बाँधते हैं, ऐसा भिन्न दिमागों का विचार भी विभिन्न होता है। किन्तु मैं तो सर्वोपरि विराजमान एक कर्म की ही प्रशंसा करता हूँ कि सभी कर्मों के अनुवर्ती हुआ करते हैं। . वस्तुतः पुराणों में वर्णित कर्म सिद्धान्त का जैन दर्शन वर्णित कर्म सिद्धान्त से कई प्रकार का साम्य परिलक्षित होता है। जिस प्रकार से जैन दर्शन में कर्म एवं आत्मा का संयोग अनादि माना गया हैं; उसी प्रकार से आत्मा को पुराणों में भी . 109 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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