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________________ इनमें से प्रथम दो ज्ञान मति और श्रत परोक्ष ज्ञान हैं जो इन्द्रियों तथा मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हे जो मात्र आत्मा पर आधारित हैं। ज्ञान के इन प्रकारों में से कुछ समानता रखते हुए पुराणों में ज्ञान के विभिन्न प्रकारों का अधोलिखित रूप से वर्णन है श्रुति, स्मृति (स्मृति भी मति का पर्यायवाची शब्द है) ये वित्रों के दो नेत्र हैं। यदि इनमें से एक का ज्ञान हो तो काना तथा एक का भी ज्ञान न हो तो वह अन्धा है।३६ योग-साधन के अन्तर्गत योगी द्वारा समस्त पदार्थों को जान लेने का उल्लेख मिलता है / 137 इसके अतिरिक्त सर्वश्रेष्ठ एवं अन्तिम मुक्ति के रूप में ज्ञानमयी कैवल्यमुक्ति का वर्णन है, जिसकी प्राप्ति पूर्ण वासना क्षय होने पर ही होती है तथा स्थायी होती है / 138 सम्यक्चारित्र _ “चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्"१३९ तथा “चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं 140 कर्मरूपी संचय को रिक्त करने वाला चारित्र है अर्थात् आत्मा की मलिनता को समाप्त करने वाला चारित्र है। निश्चयं दृष्टि से चारित्र समत्व की उपलब्धि, आत्मरमण है / व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध मानसिक, वाचिक, कायिकशुद्धि एवं शुद्धि कारक नियमों से है। “यह नैतिक अनुशासन के नियमों का प्रतिनिधित्व करता है, उत्तम व्यवहार का नियमन करता है और मन-वचन-काय की गतिविधियों की संरचना करता है।" चारित्र से पहले सम्यग्ज्ञान नहीं हो तो वह सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता। जैसे बिना जानी औषधि सेवन से मरण संभव है वैसे ही बिना ज्ञान के चारित्र से संसार में वृद्धि होना संभव है। बिना जीव के मृत शरीरस्थ इन्द्रियों के आकार जैसे निष्प्रयोजन हैं; वैसे ही बिना ज्ञान के वेष, क्रिया-कांड साधन, शुद्धोपयोग प्राप्ति के साधक नहीं हो सकते / 42 इसी प्रकार मात्र ज्ञान से भी कुछ नहीं होता. यदि धर्म सिद्धान्तों को जानते हुए भी कोई उनका पालन न करे। चारित्र के दो प्रकार जैन धर्म में बताये गये हैं (1) देशविरति चारित्र-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह धर्म का एकदेश अर्थात् सम्पूर्ण रूप से पालन न करने से गृहस्थ का चारित्र देश चारित्र कहा जाता है। (2) सर्वविरति चारित्र-उन्हीं व्रतों को पूर्ण रूप से धारण करने से श्रमण का चारित्र सकलचारित्र, सर्वदेश चारित्र अथवा सर्वव्रती चारित्र कहा जाता है। आचार को ही परम धर्म, परम धन, परम विद्या तथा परम गति४३ बताते हैं। पुराणों के अनुसार भी ज्ञान का फल ही सदाचार है। जीवन में उतारे बिना मात्र कर्मवाद / 108
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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