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________________ को स्वच्छंद प्रतिपादन का अवसर देने का हमारा यह आदर्श ही हमारी चिरंतनता का रहस्य रहा है। जैसा ऊपर संकेतित है वैदिक और पौराणिक संस्कृति की भांति जैन और बौद्ध संस्कृति भी हमारी सांस्कृतिक निधि के अत्यन्त मूल्यवान आयाम हैं। न केवल पाश्चात्य विमर्शकों ने बल्कि भारतीय इतिहासकारों ने भी इन दोनों की अलग पहचान के लिए इन्हें श्रमण संस्कृति का नाम दिया था। सनातन संस्कृति (आर्य संस्कृति) और जैन व बौद्ध संस्कृति में विभेद स्पष्ट करने के लिए कहा जाने लगा कि एक आर्ष संस्कृति थी, एक श्रमण संस्कृति / एक ऋषियों की थी, दूसरी मुनियों की। ये दोनों कब-कब, कहाँ-कहाँ पनपी, इस पर भी बहुत लिखा गया है। वैसे तो जैन धर्म को अनादि और अनन्त माना गया है और पारंपरिक मान्यता के अनुसार समय-समय पर जो तीर्थंकर होते रहे हैं, उनका भी क्रम अनादि अनन्त है। अभी तो अवसर्पिणी काल के तीर्थंकर हुए हैं फिर उत्सर्पिणी काल के होंगे। इसी प्रकार बौद्ध धर्म भी अनादि अनन्त परम्परा की मान्यता रखता है किन्तु इतिहास दृष्टि से भी इनके काल निर्धारण का प्रयत्न हुआ है। जिस काल से इनका वाङ्मय उपलब्ध हुआ है, उस काल से इनके विकास का आकलन किया जाना स्वाभाविक है। यह बात अलग है कि वेदों में वातरशन मुनियों के उल्लेख या श्रमण शब्द को लेकर कभी इस संस्कृति को प्राग्वैदिक बताने का प्रयास भी किया जाता है और कभी वैदिक और पौराणिक वाङ्मय में श्रमण संस्कृति के प्रभाव का आकलन किया जाता है। हो सकता है इस तत्त्व-चिन्तन के उत्स बहुत पहले से विद्यमान रहे हों। यह तो निर्विवाद है कि वैदिक और श्रमण दोनों सांस्कृतिक धाराओं का परस्पर समन्वय या आदान-प्रदान अवश्य रहा है। न केवल हमारे दर्शन में बल्कि आचार और परंपराओं में भी इस भाव को सूक्ष्म निरीक्षण के द्वारा खोजा जा सकता है। मैं तो अपने बाल्यकाल से ऐसा अनुभव करता रहा हूँ कि कुछ सनातन परंपराओं में श्रमण परंपराओं का परोक्ष प्रभाव अवश्य रहा होगा। जब-जब पुराणों को पढ़ता था तो यह पाता था कि उन सबमें जिस प्रकार वीणा बजाते नारद जी को देवलोक में और भू लोक में हर जगह कहीं भी प्रकट होने वाला बतलाया जाता है उसी प्रकार चार मुनियों को (सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार) श्वेत वस्र पहने सदा पाँच वर्ष के बालक जैसे तथा निर्द्वद्व बतलाया जाता था, साथ ही यह भी स्पष्ट किया जाता था कि किसी भी लोक में किसी भी देवता के यहाँ उन्हें कभी नहीं रोका जाता था, वे बेरोकटोक प्रवेश कर सकते थे और सर्वोच्च सम्मान पाते थे। तब यह लगता था कि ये चार मुनि अवश्य ही किसी (ix)
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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