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________________ तुलनात्मक आकलन इस प्रकार पारस्परिक सम्मान और समन्वय की एक धारा चली तो दूसरी ओर विभेद और विघटन के भी प्रयत्न हुए। संप्रदायों में परस्पर निन्दा और विद्वेष की जो बातें सुनने को मिलती हैं या अपनी सनातन धारा के विरुद्ध बोलने वाले सम्प्रदायों को हेय मानने के प्रयासों के छुटपुट उदाहरण मिलते हैं, वे इसी दूसरी धारा के प्रतीक हैं। व्रात्य या देवानां प्रिय शब्द को पतित या मूर्ख का पयार्यवाची मानना, 'हस्तिना ताड्यमानोपि न गच्छेज्जैनमंदिरम्।' आदि लिखना उसी धारा के कुछ उदाहरण हैं। यह स्पष्ट है कि हमारी चिरंतन सांस्कृतिक धारा वही समन्वय और पारस्परिक सम्मान वाली धारा रही है, विघटन के प्रयासों को तात्कालिक उग्रवादी प्रयास ही माना जाता रहा है। यही कारण है कि भारतीय इतिहास में प्रत्येक सम्राट और राजा प्रत्येक धर्म और दर्शन शाखाओं के विद्वानों और चिन्तकों को सम्मान देता रहा है। हर धर्म के ऋषि-मुनियों को, यतियों, साधुओं को दान देता रहा है और प्रत्येक दर्शन शाखा को पूर्ण विकास के अवसर देता रहा है। अधिकांशतः इन सभी सांस्कृतिक धाराओं के मनीषियों ने अपने आपको एक ही विशाल सांस्कृतिक सौध के विभिन्न स्तंभों के रूप में देखा है। पार्थक्य या विघटित होने में गौरव नहीं माना, एक महावंश से जुड़े रहना स्वीकार किया। सनातनियों के मत में भी जैनों के प्रायः सभी तीर्थंकर इक्ष्वाकु वंश के राजा रहे (सुव्रत और नेमि को छोड़कर)। वैदिक संस्कृति के इन्द्र आदि देवता, ओंकार आदि अक्षर तथा अन्य सांस्कृतिक प्रतीक इन सभी की मान्यताओं और कथाओं में रचे बसे हैं। ज्ञातृपुत्र वर्धमान के पाँच. महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) वही हैं जिन्हें मनु सामासिक धर्म कहते हैं। ऐसे प्रयत्न तो स्वाभाविक ही है कि कोई शाखा या कोई भाषा अपने विशिष्ट महत्त्व को रेखांकित करने के लिए कभी अपने आपको सर्वाधिक प्राचीन सिद्ध करने का प्रयत्न करे और कभी अपने सिद्धान्तों को ही सर्वोत्कृष्ट बताने का। तमिल अथवा पंजाबी भाषा यदि अपने व्याकरण या लिपि को वैदिक या संस्कृति से भी पुरानी सिद्ध करने का प्रयत्न करे या विभिन्न धर्मों अथवा दर्शनों के अनुयायी अपनी शाखा को प्राचीनतम सिद्ध करने का प्रयत्न करें तो इस ललक को स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति मानकर सम्मान ही देना चाहिए। हमारे यहाँ तो इस प्रकार के शास्त्रार्थों, खंडन-मंडनों और पक्ष-प्रतिपक्षों की अविच्छिन्न परंपरा रही है और सभी सिद्धान्तों (viii).
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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