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________________ को वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति, संत संस्कृति, भक्ति मार्ग, निर्गुण या सगुण संत ... परंपरा, सनातन या वर्णाश्रम धर्म, वैष्णव भावना आदि अभिधान देकर समझाने के लिए उसकी पहचान अलग से बतलाते हैं किन्तु हैं वे एक ही धारा के अंग। उन्हें चाहे हिन्दुत्व के विभिन्न आयाम कह दें या भारतीय संस्कृति के पड़ाव कह दें, उन्हें धर्म या दर्शन की दृष्टि से आस्तिक, नास्तिक, सगुण, निर्गुण, जैन, बौद्ध, सनातनी, आर्य समाजी, सूफी, साधु-संन्यासी, फकीर, संत या लोक देवताओं द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय कह दें, सभी इस धरती की देन हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इनकी पूर्वापरता कुछ भी रही हो हमारे यहाँ के मनीषी, शास्रकारों और पुराणवक्ता इतिहासकारों का सदा यह प्रयत्न रहा कि इन सबको एक ही उपवन के विभिन्न वृक्षों के रूप में महकते दिखाया जाये। इस प्रकार एक तो यह धारा चली कि इस धरती पर पैदा हुए विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों को तथा विभिन्न महापुरुषों और युगप्रवर्तकों को. समान रूप से श्रद्धा भाजन मानते हुए उन्हें एक सूत्र में पिरो. कर इतिहास की थाती बना दिया जाये। इसी धारा के कुछ उदाहरण इस बात से समझे जा सकते हैं कि वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में अपना पृथक् धर्म-प्रवर्तन करने वाले बुद्ध को भी पुराणकारों ने विष्णु के दस अवतारों में स्थान देकर एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोया। जयदेव ने लिखा निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम् अर्थात् यज्ञ के निन्दक के रूप में बुद्ध की पहचान की किन्तु उन्हें विष्णु का अवतार बतलाकर पूज्य मान लिया। बुद्ध को दशावतारों में एक मानने से ही पुराणकार संतुष्ट नहीं हुए, श्रीमद्भागवत में जैनों के आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव को भी अपना बनाने की दृष्टि से अपनी ओर से चौबीस अवतारों में मानकर उन्हें वंदनीय और युगप्रवर्तक बताया गया। जिन्हें घोर नास्तिक दर्शन कहा जाता है उनके चिन्तन को भी महत्त्वपूर्ण दर्शन शाखा माना गया। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या कांड में राम के पास जब भरत मिलने आते हैं और ऋषियों का विचार-विमर्श होता है तो जाबालि ऋषि को घिसे-पिटे कर्मकांड के विरुद्ध कटु शब्दों में रुढ़ियों की आलोचना करते हुए बताया जाता है। उनका समस्त विवेचन पूर्णत: चार्वाक दर्शन का प्रतीक है किन्तु उन्हें अन्य ऋषियों की तरह पूर्ण सम्मान का पात्र माना जाता है। दर्शनों के इतिहास लिखने वाले प्राचीन दार्शनिक भी चार्वाक दर्शन का सम्मान से उल्लेख करते हैं। यही स्थिति जैन और बौद्ध दर्शनों की भी रही है। माधवाचार्य अपने सर्वदर्शन संग्रह में इन्हें सर्वप्रथम स्थान देते हैं। MMMM
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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