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________________ अलौकिक और विभिन्न परंपरा के प्रतीक हैं क्योंकि किसी ऋषिवंश से ये जुड़े नहीं पाये गये, अतः इन्हें पुराणों ने ब्रह्मा के मानस पुत्र बताया। आज श्रमण संस्कृति के मूर्धन्य विचारक यदि इन्हें श्रमण परंपरा के प्रतिनिधि मानने लगे हैं तो बात समझ में आती सी लगती है। इसी प्रकार जब भाद्रपद मास में अपने परिवार में अनन्त चतुर्दशी का व्रत विधि विधान से किये जाते देखता था और उसमें वर्णित विष्णु को अनन्त या निर्गुण निराकार वर्णित देखता था तो उससे लगता था कि भाद्रपद मास में जो जैनाचार वैपुल्य के साथ प्रचलित है उन्हीं के अनुरूप वैष्णव आचार में भी एक अनन्त और अक्षय निराकार आराध्य की पूजा की परंपरा स्थापित की गई होगी। इस प्रकार के सांस्कृतिक प्रभावों का आकलन सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन को दिशा दे सकता है। क्या इस प्रकार के परस्पर प्रभावों का क्रम पुराण काल में चला या वेदकाल से ही था? ऐसे अध्ययनों की प्रासंगिकता स्पष्ट है। ऐसे आकलन, तत्सम्बन्धी विद्वद्गोष्ठियाँ होने भी लगी हैं किन्तु इन प्रयासों का सातत्य अब वांछनीय . वस्तुनिष्ठ अनुसन्धान इस सारे विवरण का आशय यही है कि इस महादेश की सामासिक संस्कृति के विराट् फलक के विकास में जिन विभिन्न रंगरेखाओं की भूमिका या सहकार रहा है, उनका अध्ययन बहुत मूल्यवान् भी होगा, रोचक भी। लगता है अपने-अपने धर्मों की गरिमा का उत्कर्ष सिद्ध करने में ही अपने अस्तित्व का औचित्य मानने वाले विभिन्न चिन्तकों ने ऐतिहासिक तथ्यपरकता या बौद्धिक निष्पक्षता या सत्यान्वेषण दृष्टि की सर्वोपरिता पर उतना ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि ऐसे तुलनात्मक अध्ययन भी नहीं हुए। जो कुछ हुए, उनमें अपनी मान्यता और अपनी परम्परा के पक्ष में कुछ रुझान (जिसे अंग्रेजी में बायस कहते हैं) या झुकाव सा दिखाई देता था। कुछ को पढ़ने से ऐसा लगने लगा कि वह एक न्यायाधीश की दृष्टि की बजाय एक वकील की दृष्टि से किया गया अनुसन्धान या शोधग्रन्थ है। जब से विश्वविद्यालयीय, पूर्वाग्रह मुक्त, तथ्यपरक अनुसंधान की सार्थकता बुद्धिजीवियों की समझ में आई, तब से ऐसे तथ्यात्मक और शुद्धतः शोधपरक अध्ययन होने लगे। इसके बावजूद विभिन्न धर्मगुरुओं या सक्रिय धार्मिक कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये अनुसन्धानों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से थोड़ा निजी पूर्वाग्रह झलक हो जाता है, ऐसी धारणा भी कुछ विद्वानों की रहीं। जो अनुसन्धाता किसी धार्मिक मान्यता से वृत्तिक या सक्रिय रूप से नहीं जुड़े हों, उन्हीं के अध्ययन पूर्णतः निष्पक्ष और
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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