________________ निर्जरा आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्मपुगलों का एकदेश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। आत्मप्रदेशों से कर्मों का एकदेश पृथक् होना द्रव्यनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा के जनक अथवा द्रव्यनिर्जरा-जन्य आत्मा के शुद्ध परिणाम को भावनिर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो भेद हैं-सविपाक निर्जरा = फल देकर स्थिति पूर्ण हो जाने पर आत्मा से कर्म का पृथक् होना सविपाक निर्जरा कहलाती है। अविपाक निर्जरा = उदयकाल प्राप्त न होने पर भी तप आदि उपायों से कर्मों के क्षय करने को अविपाक निर्जरा कहते हैं। इसके अनशन, उनोदर आदि बारह प्रकार भी जैनागमों में वर्णित हैं।९२ पुराणों में वर्णित कर्मों का निर्मूलन जैन धर्म वर्णित निर्जरा के सदृश ही है। योगी द्वारा तप तथा ध्यानादि योग मार्ग से पूर्वबद्ध शुभाशुभ कमों का क्षय किया जाना अर्थात् मुक्ति के लिए समस्त कर्मों को नष्ट करने का यही तात्पर्य है। मोक्ष चारों पुरुषार्थों में से अन्तिम तथा परम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने के हेतुओं का निर्देश लगभग सभी कर्मवादी दर्शनों में दृष्टिगोचर होता है। असत् कर्मों का भयंकर परिणाम तथा सत्कर्मों का सुन्दर विपाक सामने रखकर ही दार्शनिक सन्तुष्ट नहीं हुए। इससे भी आगे के लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय सामने रखते हुए सुख एवं दुःख दोनों को नश्वर मानते हुए शुद्ध-स्वरूप की प्राप्ति पर बल दिया। ... कर्म-संलग्न आत्मा अशुद्ध है। जैन दर्शन के अनुसार “संवर के द्वारा नये कर्मों का आगमन रुक जाने पर तथा निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की जो निष्कर्म शुद्धावस्था है, वही मोक्ष है-“कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' अर्थात् समस्त कर्मों का क्षय होना मोक्ष है। कर्मक्षय या नाश का अर्थ यहाँ पृथक्करण है। _ भारत के अन्य दर्शनों ने भी मोक्ष के विषय में यही चिन्तन प्रस्तुत किया है। सांख्य दर्शनकार ने “प्रकृति वियोगो मोक्षः” कहकर आत्मा रूप पुरुषत्व से प्रकृति रूप अचेतन तत्त्व का अलग हो जाना मोक्ष कहा है। वेदान्तिक आचार्य के अनुसार-परब्रह्म स्वरूप ईश्वरीय शक्ति में आत्मा का लीन हो जाना मुक्ति है- आत्मण्येव लयो मुक्तिर्वेदान्तिक मते मताः / जैनाचार्य हेमचन्द्र ने संसार एवं मोक्ष को परिभाषित किया है-“कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और उनको विजित करने वाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा मोक्ष कहा जाता है / 25 “मुच्” धातु से निष्पन्न मोक्ष का शाब्दिक 103 / पुराणों में जैन धर्म