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________________ * अर्थ-मुक्ति, स्वतन्त्रता, छुटकारा एवं निवृत्ति है। इसके लिए अनेक पर्यायवाची शब्द प्रचलित हैं-मुक्ति, सिद्धि, निर्वाण, अमृतत्त्व, बोधि, विमुक्ति, विशुद्धि, कैवल्य आदि। जिस प्रकार जैन धर्म में सम्पूर्ण कर्म क्षय को मोक्ष कहा गया है, वैसे ही पुराणों में मोक्ष की प्राप्ति का सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने पर ही उल्लेख है। पूर्वजन्मों में अर्जित शुभ या अशुभ कर्मों के प्रभाव से स्वर्गादि या नरकादि में भ्रमण होता है। कर्मों का निर्मूलन होने पर ही मुक्ति होती है। पुण्य-पापमय जो कर्म हैं, वे मोक्ष के प्रतिबंधक हैं अतः योगी पुरुष योग के द्वारा पुण्यापुण्य का परित्याग कर दें, जब शुभ तथा अशुभ दोनों ही कर्मों का क्षय हो जाता है तभी जीव को सच्चा मोक्ष प्राप्त होता है। योगी लोग पुण्य-पाप से विनिर्मुक्त होकर उसको प्राप्त करके फिर पुनर्जन्म नहीं लेते हैं।९८ मोक्ष प्राप्ति के साधन मुक्ति प्राप्ति के मार्ग अथवा हेतु अथवा साधनों पर विभिन्न दर्शनों के विभिन्न विचार हैं। जैन दर्शन में मोक्ष-मार्ग का निर्देश इस प्रकार से है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ___सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकूचारित्र-ये मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। मात्र ज्ञान अथवा मात्र दर्शन या चारित्र से ही मुक्ति प्राप्त नहीं होती अपितु ये तीनों संयुक्त रूप से मोक्ष के हेतु हैं। अतः इन्हें रत्नत्रय कहां जाता है। इन तीनों की परस्पर सापेक्षता महात्मा भगवानदीन के शब्दों में इस प्रकार से है-“कोरा एतकाद (श्रद्धा) कुछ नहीं कर सकता; न अकेले इल्म (ज्ञान) से कुछ बन सकेगा। सिर्फ अमल से तो कुछ होता ही नहीं, विश्वास और ज्ञान मिलकर अमल न होने से कोई फायदा नहीं। विश्वास और अमल बिना ज्ञान के न मालूम कहाँ पटक दे। ज्ञान और अमल बिना विश्वास के बेस्टीम (भाप रहित) के इंजन हैं। विश्वास एक जोर है जो काम में लगाता ही नहीं, आगे ढकेलता रहता है। गरज कामयाबी के लिए तीनों ही जरूरी उपासना के तीनों साधनों का निरूपण पुराणों में भी है। शिव पुराण के अनुसार-ज्ञानयोग, क्रियायोग तथा भक्तियोग, ये तीन उपासना के मार्ग हैं। कर्म से भक्ति तथा भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से मुक्ति होती है। इसमें तीनों का समन्वय भी स्पष्ट है। तीनों की परस्पर निर्भरता इस प्रकार है-“कर्म तथा ज्ञान का मध्यवर्ती पदार्थ भक्ति है और ज्ञान का प्रधान सम्बन्ध आत्मा से है। शुद्ध सात्विक ज्ञान के उदय होने पर आत्मा शाश्वतिक सुख प्राप्त कर सकता है। सात्विक ज्ञान के उदय में विहित कर्मानुष्ठान कारण बनता है। 102 पूर्ववर्णित तीनों साधनों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है कर्मवाद / 104
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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