________________ अर्थात् जिस प्रकार जल से आप्लावित क्षेत्र अंकुर को उत्पन्न करता है उसी प्रकार अज्ञानाप्लावित (अज्ञानपूर्वक किया गया) कर्म ही जन्म का कारण होता है।" मानसिक कषाय विकारों द्वारा बन्धन का प्रतिपादन करते हुए पुराणों का भी यही मन्तव्य है कि मन द्वारा बद्ध पापकर्म वज्रलेप के समान होते हैं, जो कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ते, ऐसा पाप केवल ध्यान से ही नष्ट होता है। इसीलिए विषयों में आसक्त मन को बंधन का कारण माना है। जिस प्रकार जैन दर्शन में कर्म को पौद्गलिक मानते हुए उसे कार्मण शरीर कहा जाता है, जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के पुद्गल-समूह से बनता है; वैसे ही पुराणों में कर्मदेह को सूक्ष्म शरीर कहा गया है. जो जड़ है। आश्रव शुभाशुभ कर्मों के आगमन द्वार को आश्रव कहते हैं। आश्रव के दो भेद हैं-द्रव्याश्रव तथा भावाश्रव; शुभ-अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वाली अथवा शुभाशुभ परिणामों से स्वयं उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों को द्रव्याश्रव और कमों के आने के द्वाररूप जीव के शुभ-अशुभ परिणामों को भावास्रव कहते हैं। मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। यह नीन प्रकार का योग आश्रव है। शुभयोग पुण्य कर्म का तथा अशुभयोग पापकर्म का आश्रव है, कषाय-सहित जीव के सांपरायिक आश्रव और कषाय रहित के ईर्यापथ आश्रव होता है। ____ आश्रव का नाम से तो नहीं किन्तु कर्मों के आगमन के रूप में उल्लेख पुराणों में भी पाया जाता है। भावरूप राग-द्वेषादि विकार के कारण तथा अज्ञान-मोहादि से कर्म का शुभ या अशुभ रूप में आगमन होता रहता है, जो सूक्ष्म शरीर के रूप में आत्मा के साथ रहता है। संवर आश्रव का निरोध संवर है। संवर के दो भेद हैं-भाव संवर, द्रव्य संवर। आते हुए नये कर्मों को रोकने वाले आत्मा के परिणाम को भाव संवर तथा कर्म पुलों के आगमन के रुक जाने को द्रव्य संवर कहते हैं अर्थात् जिन कारणों से आश्रव होता था, उन कारणों को दूर कर देने से जो कर्मों का आना बन्द हो जाता है. उसे संवर कहते हैं। यह तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय और पाँच चारित्र से होता है। ___पुराणों में आश्रव के समान ही संवर का भी नामशः उल्लेख न होकर कों का आगमन रुकने के रूप में वर्णन इस प्रकार है-"जो अपनी आसक्ति का परित्याग कर देते हैं, वे आवश्यक कर्म करते हुए भी कर्मलिप्त नहीं होते अर्थात् संयम, इन्द्रिय संवरण आदि द्वारा आने वाले नवीन कर्म उनमें प्रवेश नहीं कस्ते हैं।" कर्मवाद / 102