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________________ कर्मबंध कर्ममल का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादि है किन्तु कर्म विशेष का सम्बन्ध अनादि न होने से पूर्वबद्ध कर्म अपनी स्थिति पूर्ण हो जाने पर आत्मा से पृथक् हो जाते हैं तथा नये कमों का बन्ध चलता रहता है। कर्मबन्ध के प्रमुख दो कारण जैन धर्म में बताये गये हैं कषाय एवं योग। इनमें से भी कषाय ही कर्मबन्ध का मुख्य हेतु है।" कषाय के अभाव में कर्म आत्मा से सम्बद्ध नहीं रह सकते। जैसे सूखे वस्त्र पर धूल अच्छी तरह से न चिपकते हुए उसका स्पर्श कर अलग हो जाती है वैसे ही आत्मा में कषाय की आर्द्रता न होने पर कर्म परमाणु भी सम्बद्ध न होते हुए उसका स्पर्श कर अलग हो जाते हैं। वैसे तो कषाय चार प्रकार का होता है-क्रोध, मान, माया और लोभ, किन्तु संक्षिप्त में इसके दो भेद हैं-राग और द्वेष, जिनके द्वारा कर्म बंध होता रहता है। कर्म के दो भेद हैं-भावकर्म तथा द्रव्यकर्म / जीव के जिन राग-द्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है और जो अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा के साथ सम्बद्ध होता है, उसे द्रव्यकर्म कहते हैं। ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के कारण हैं / जीव अपने मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों से कर्मवर्गणा के पुदलों को आकर्षित करता है। त्रियोग की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव कर्म सम्बद्ध हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति अर्थात् द्रव्यकर्म से भावकर्म एवं भावकर्म से द्रव्यकर्म की परम्परा (बीज-वृक्ष के समान) चलती रहती है। . - राग-द्वेष मय आन्तरिक परिणामों से बंध होता है-“परिणामे बंधः” राग-द्वेष में निरत मन कर्मबंध का कारण है। मन एक ऐसी प्रचण्ड शक्ति है जिसका उपयोग दोहरा होता है अर्थात यह दुधारी तलवार है; जिसके सदुपयोग से सफलता मिलती है, वहीं दुरुपयोग से विनाश, ह्रास एवं पतन की प्राप्ति होती है। मन को दुष्ट घोड़े की उपमा दी गई है, जिसे धर्मशिक्षा और स्वविवेक द्वारा वशीभूत किया जा सकता है। 2 मनोविजय के सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य का यह कथन है निरंकुशमनराक्षस है-जो.निःशंक होकर दौड़-धूप करता रहता है और तीनों जगत् के जीवों को संसार रूपी गड्ढे में गिराता है। मिथ्यात्व या अज्ञान की अवस्था में आन्तरिक विवेक प्रसुप्त हो जाता है। कर्मबंध के कारण पर पुराणों में भी चिन्तन किया गया है। पूर्ववत् कर्मबंध का प्रमुख कारण अज्ञान को माना है___ अद्भिराप्लावितं क्षेत्रं जनयत्यंकुरं यथा। . अज्ञानाप्लावितं कर्म देहं जनयते तथा / .... 101 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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