________________ स्थिति-विशेष, अथवा भाव-विशेष, अध्यवसाय-विशेष के कारण उस स्थिति के अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तन (उत्कर्षण) कहलाता है। . (6) अपवर्तना-यह अवस्था उद्वर्तना से बिल्कुल विपरीत है। बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में अध्यवसायविशेष से कमी कर देने का नाम अपवर्तना (अपकर्षणा) है। ., (7) संक्रमण-एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के परमाणुओं की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है। (8) उपशमन-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होती, उसे उपशमन कहते हैं। इस अवस्था में भी उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता। उपशमन अवस्था में रहा हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदय में आकर फल प्रदान करना शुरू कर देता है। (9) निधत्ति कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सर्वथा अभाव की स्थिति को निधत्ति कहते हैं। इस स्थिति में उद्वर्तना और अपवर्तना की संभावना रहती है। (10) निकाचन-उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा-इन चार अवस्थाओं के न होने की स्थिति का नाम निकाचन है। इस अवस्था का अर्थ हैकर्म का जिस रूप में बंध हुआ, उसी रूप में उसे अनिवार्यतः भोगना इस अवस्था को “नियति” भी कह सकते हैं। किसी-किसी कर्म की यह अवस्था भी होती है। (11) अबाध कर्म के बंधन के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देना अबाध अवस्था है / यद्यपि कर्मवाद का जितना सयुक्तिक, विस्तृत, सूक्ष्म एवं व्यवस्थित विश्लेषण जैन दर्शन में है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है; किन्तु फिर भी कर्म सिद्धान्त का वर्णन करते हुए पुराणों में भी कर्म की कुछ अवस्थाओं का वर्णन है जिनका साम्य उपर्युक्त अवस्थाओं से है। ___ पौराणिक साहित्य में कर्म की तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। वर्तमान क्षण के पूर्व तक किये गये समस्त कर्म संचित कर्म कहे जाते हैं। संचित कर्म के जिस भाग का फलभोग शुरू हो जाता है, उसे प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। नवीन कर्म संचय को क्रियमाण कर्म कहते हैं। इनमें से संचित कर्म की तुलना जैन दर्शन वर्णित कर्म की सत्ता अवस्था से, प्रारब्ध कर्म की तुलना उदयकर्म से तथा क्रियमाण कर्म की तुलना बंधमान कर्म से हो सकती है। जैनदर्शन वर्णित निकाचित अवस्था पुराणों में वर्णित नियतिवाद (दैववाद) के तुल्य है तथा कर्मों में परिवर्तन सम्बन्धी अवस्थाओं की तुलना मुरुषार्थवाद से हो सकती है। कर्मवाद / 100