________________ प्राप्ति होती है और इसके विपरीत आचरण करने से पुनः जन्म होता है।३ वस्तुतः बंध का कारण मानसिक आसक्ति है: मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः / . बन्धाय विषयासक्तं, मुक्त्यै-निर्विषयं स्मृतम् / / अर्थात् विषयों में आसक्त मन द्वारा बंध होता है तथा निर्विषय (विषयों में अनासक्त निष्काम) मन द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है। पद्मपुराण में निष्काम कर्म से अबंध का निरूपण करते हुए कहा गया है कुछ लोग मन से ही तरित हो जाते हैं और कुछ लोग मन से ही पतित हो जाया करते हैं। योगी अन्दर से सबका (मन से सभी आसक्तियों का) परित्याग तथा बाह्य में कर्म का समाचरण करते हुए भी लिप्त नहीं होता है, जिस प्रकार नीर के लेशों से भी पद्म का पात्र लिप्त नहीं हुआ करता है। . . कर्म की विविध अवस्थाएँ . जैन कर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है, मुख्यतः उन्हें ग्यारह भागों में विभक्त किया गया है-७६ (1) बंधन-आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का बंधन अर्थात् नीरक्षीरवत् एकरूप हो जाना बंधन कहलाता है। बंधन चार प्रकार का है-प्रकृतिबंध = बद्ध कर्म परमाणुओं का आत्मा के ज्ञान आदि गुणों के आवरण रूप में परिणत होना। प्रदेशबंध = गृहीत पुल परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना। अनुभागबंध = कर्मरूप गृहीत पुद्गल परमाणुओं के फल देने की शक्ति व उसकी तीव्रता-मंदता का निश्चय करनी अनुभागबंध है। स्थिति बंध = कर्मविपाक (कर्मफल) के काल की मर्यादा को बताना स्थितिबंध है। . (2) सत्ताबद्ध परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षयपर्यन्त आत्मा में सम्बद्ध रहते हैं, इस अवस्था का नाम सत्ता है। इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए भी विद्यमान रहते हैं। (3) उदय कर्म की फल प्रदान करने की अवस्था को उदय कहते है उदय में आने वाले कर्म पुगल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं। (4) उदीरणा नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है। जिस प्रकार प्रयत्न द्वारा नियत समय से पहले फल पकाये जा सकते हैं, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पहले बद्ध कर्मों को भोगा जा सकता है। . (5) उद्वर्तना-बद्ध कमों की स्थिति और अनुभाग। इसका निश्चय बंध के साथ विद्यमान कषाय की तीव्रता और मन्दता के अनुसार होता है। उसके बाद की .. 99 / पुराणों में जैन धर्म