________________ पुण्य के सन्दर्भ में पुराणों के लिए यह कथन विख्यात है: अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचन द्वयम्। परोपकारो पुण्याय, पापाय परपीडनम् / / पुण्य से यहाँ भी तात्पर्य परोपकार लिया गया है। सेवा, दानादि के द्वारा पुण्य प्राप्ति का उल्लेख पुराणों में कई जगह उपलब्ध होता है। (3) ईर्यापथिक कर्म/अकर्म जैन दर्शन के अनुसार-राग, द्वेष एवं कषाय ही किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं जबकि कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म, अकर्म बन जाता है। ईर्यापथिक क्रियाएँ निष्काम वीतराग व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बंधनकारक नहीं हैं। जबकि साम्परायिक कियाएँ आसक्त व्यक्ति की होती हैं जो कषाय सहित होने से बन्धनकारक होती है। कर्म-अकर्म के विषय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव-ऐसा नहीं मानना चाहिए। वस्तुतः प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है।* "जो आस्रव या बन्धनकारक क्रियाएँ हैं वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती है। उदाहरणस्वरूप दशवैकालिक सूत्र में यह प्रश्न पूछे जाने पर कि आवश्यक क्रियाएँ (जो कि करना जरूरी हैं जैसे चलना, ठहरना, बैठना, सोना, खाना, बोलना आदि) कैसे करे ताकि उनसे पापकर्म का बंध न हो? उत्तर इस प्रकार दिया गया है: जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई / / अर्थात् . चलना आदि क्रियायें विवेकपूर्वक करने से पापकर्म का बंध नहीं होता। तात्पर्य यही है कि बंधकत्व मात्र क्रियाओं पर ही निर्भर नहीं है। अप्रमत्त अवस्था में क्रियाशीलता भी अकर्म हो जाती है जबकि प्रमत्तदंशा में निष्क्रियता भी कर्म (बंधन) बन जाती है। अतः क्रिया के पीछे रहे हुए कषाय-भाव या आसक्ति भाव ही बंधन का कारण है; जो अन्तर से राग-द्वेषरूप भावकर्म नहीं करता, उसे नये कर्म का बंध नहीं होता।२ / आसक्ति रहित निष्काम कर्म का, अकर्म के रूप में पुराणों में भी वर्णन है। योगी जनों में इस अवस्था की प्राप्ति को दिखाते हुए मार्कण्डेय पुराण का कथन है-“पुण्यों और अपुण्यों के उपभोग के पश्चात् निष्काम भाव से नित्यकर्म करने चाहिए, इससे पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय एवं नवीन कर्मों का असंचय होने से शरीर बार गार कर्मबन्धन प्राप्त नहीं करता। इस प्रकार के निष्काम कर्म करने से मोक्ष की कर्मवाद / 98