________________ की संख्या का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। स्थूल, सूक्ष्म अथवा अतिसूक्ष्म आदि भेदों की दृष्टि से पाप असंख्य हो सकते हैं। स्थूल दृष्टि से पाप तीन प्रकार के होते हैं (1) मानसिक-परस्त्री चिंतन, पर अनिष्ट चिंतन, पर धनहरण की इच्छा, अकार्य करने का विचार आदि मानसिक पाप हैं। (2) वाचिक झूठ बोलना, परनिन्दा, अप्रिय वचन तथा पैशुन्य (चुगली . करना) आदि वाचिक पाप हैं। (3) कायिक अभक्ष्य-भक्षण, हिंसा, परधन हरण तथा मिथ्या (झूठे) कार्य करना आदि कायिक पाप हैं।६५ (2) पुण्यकर्म/कर्म जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार “पुण्य कर्म वे शुभ पुद्गल परमाणु हैं जो शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो, बंध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं। आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं जो शुभ पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं। साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के अवसर उपस्थित करते हैं, पुण्य कहे जाते हैं। शुभ मनोवृत्तियाँ भाव पुण्य हैं और शुभ पुद्गल परमाणु द्रव्य पुण्य हैं।"६६ भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण कहा है। स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के पुण्यों का निरूपण है-६८ (1) अन्नपुण्य-भोजनादि देकर क्षुधार्त की क्षुधा निवृत्ति करना। (2) पानपुण्य-तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना। (3) लयनपुण्य-निवास के लिए स्थान देना। (4) शयनपुण्य-शय्या बिछौना आदि देना। (5) वस्त्रपुण्य-वस्त्र का दान देना। (6) मनपुण्य-मन से शुभ विचार करना। (7) वचनपुण्य-प्रशस्त एवं सन्तोष देने वाली वाणी का प्रयोग करना / (8) कायपुण्य-रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना। (9) नमस्कारपुण्य-गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिनन्दन करना। 97 / पुराणों में जैन धर्म