________________ भगवज्जिनसेन ने “इस नामकर्म को वास्तविक ब्रह्मा, सृष्टा अथवा विधाता कहा है / "61 7. जो कर्म जीव को उच्च, नीच कुल में जन्मावे अथवा जिस कर्म के उदय से पूज्यता-अपूज्यता का भाव उत्पन्न हो, जीव उच्च-नीच कहलाये, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। 8. जो कर्म आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य रूपी शक्तियों का घात करता है या दानादि में अन्तराय रूप हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। ____ इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय ये चार कर्म आत्मा के 4 मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य-शक्ति) का घात करने से घाती कहलाते हैं। शेष चार अघाती कर्म-प्रकृतियाँ आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती हैं किन्तु वे आत्मा को एक ऐसा रूप प्रदान करती है, जो उसका निजी नहीं है अपितु पौलिक भौतिक है। कर्म के प्रकारों का वर्णन अन्यरूप में भी उपलब्ध होता है, जिसके अनुसार कर्म के प्रमुखतः तीन प्रकार हैं-अशुभ, शुभ एवं शुद्ध, जिन्हें पौराणिक भाषा में क्रमशः विकर्म, कर्म तथा अकर्म कहा गया है। जैन दर्शन में इन्हें पापकर्म, पुण्यकर्म तथा ईर्यापथिक कर्म कहा जाता है। (1) पापकर्म/विकर्म ___ जैनागमों में पाप कर्म के 18 प्रकार बताये हैं-६२ (1) प्राणातिपात (हिंसा),(२) मृषावाद (असत्य भाषण), (3) अदत्तादान (चौर्यकर्म), (4) मैथुन (काम-विकार), (5) परिग्रह (ममत्व या संचयवृत्ति), (6) क्रोध, (7) मान (अहंकार),(८) माया (कपट), (9) लोभ, (10) राग (आसक्ति), (11) द्वेष (घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्यादि), (12) क्लेश (संघर्ष, कलह), (13) अभ्याख्यान (दोषारोपण), (14) पिशुनता (चुगली), (15) परपरिवाद (परनिन्दा), (16) रति-अरति (हर्ष और शोक), (17) माया मृषा (कपटसहित असत्य भाषण), (18) मिथ्यादर्शन शल्य (अयथार्थ दृष्टि)। ___ पाप की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो आत्मा को बंधन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे-आत्म शक्तियों को क्षय करे, वह पाप है।६३ पुराणों में भी विकर्म अर्थात् पापकों का वर्णन “पापाय परपीड़नम्” कहकर किया है अर्थात् व्यक्ति की जिस क्रिया के द्वारा किसी को पीड़ा पहुंचे, वही पाप है। भविष्यपुराणकारानुसार-मनुष्य के अधम कार्यों से ही उसका अधः पतन होता है-अर्थात् जिनसे अध: पतन हो वे ही अधम अथवा नीचकर्म हैं। जिन कर्मों से नर्क के समुद्र की यातना भोगनी पड़े, वह पाप कहलाता है। अधम या पापकर्मों कर्मवाद / 96