________________ . द्वयोर्बन्धोऽप्यनादि स्यात् सम्बन्धो जीवकर्मणः // 6 .. कर्म सन्तति की अपेक्षा से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि है, व्यक्तिशः नहीं। किसी एक कर्म विशेष का अनादिकाल से सम्बन्ध नहीं है। पूर्वबद्ध कर्म स्थिति के पूर्ण होने पर आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, नवीन कर्म का बंध होता रहता है, इस प्रकार प्रवाह रूप से यह सम्बन्ध अनादि है। परन्तु यह सम्बन्ध अनादि होते हुए सान्त भी है। कर्म व आत्मा का पुरुषार्थ द्वारा पृथक्करण हो सकता इस जैन विचारधारा के समान ही पुराणों का भी मत है कि “आत्मा के साथ मल का संयोग अनादि है, किन्तु आत्मा की मुक्ति के साथ इस संयोग का विनाश अवश्य होता है-" “अनादिमल भोगान्तं............५९ आत्मा की यह मलिनता अनादि होते हुए भी इसका विनाश आत्मा के द्वारा अपनी सत्य प्रकृति के पहचान लेने पर ही होता है। . कर्म के प्रकार ... जैनागमों के अनुसार कर्मों के मुख्य भेद आठ हैं-६० 1. जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। यह जगत् के बौद्धिक विभिन्नता का कारण है। 2. जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करे, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। 3. जिस कर्म के द्वारा जीव को सांसारिक इन्द्रिय-जन्य सुख-दुःख का अनुभव हो, वह वेदनीय कर्म कहलाता है। 4. जो कर्म जीव को स्व-पर-विवेक में तथा स्वरूप-रमण में बाधा पहुँचाता है अथवा चारित्रगुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। इसके कारण जीव विपरीत बुद्धि वाला बनकर शरीर को आत्मा तथा आत्मा को शरीरं रूप मानकर दुःखी होता है। . 5. जिस कर्म के अस्तित्व से जीव जीता है और क्षय होने से मरता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। इसके द्वारा जीव की मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में नियत काल पर्यन्त अवस्थिति होती है। 6. जिस कर्म के उदय से जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य देव आदि कहलाये. उसे नामकर्म कहते हैं। एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक चौरासी लाख योनियों ___में जो जीवों की अनन्त आकृतियाँ हैं, उसका निर्माता नामकर्म है। आचार्य ___95 / पुराणों में जैन धर्म