________________ इसीलिए विष्णुपुराण में कहा गया है कि कौन किसके द्वारा मारा जाता है या रक्षित होता है? शुभाशुभ आचरणों से यह आत्मा स्वयं अपनी रक्षा अथवा विनाश करने में समर्थ है। कर्मों के कारण ही सबका जन्म तथा शुभाशुभ गतियाँ होती हैं। अतः शुभ कर्म (कार्य) करने का ही प्रयत्न करना उचित है। . ___ इस प्रकार पुरुषार्थ का महत्त्व पुराण तथा बैन दर्शन दोनों में प्रतिपादित है। पुरुषार्थ के बल पर व्यक्ति कमों के उदय के रूप को भी परिवर्तित कर सकता है। उदाहरणस्वरूप हम जैनागमों में वर्णित कर्म की अन्य अवस्थाएँ–अपवर्तना, उद्वर्तना, उदीरणा, निर्जरा आदि में इसकी सार्थकता देख सकते हैं तथा पुराण साहित्य में योगी द्वारा योगसाधना द्वारा कर्म करते हुए भी कर्मबद्ध न होना तथा प्राचीन कमों का ध्वंस करना भी यही बताता है। आत्मा और कर्म का सम्बन आत्मा तथा कर्म में पहले कौन था तथा इनका सम्बन्ध कब से हुआ, यह जामने के लिए उनके प्रारम्भ सम्बन्धी धारणाएँ जान लेना रचित है। वैदिक परम्परा में मान्य “केद और उपनिषदों तक का सृष्टि-प्रक्रिया के अनुसार जड़ और चेतन सृष्टि अनादि न होकर सादि है। यह भी माना गया था कि वह सृष्टि किसी एक या किन्हीं अनेक बड़ा अथवा चेतन तत्वों से उत्पन्न हुई। इससे विपीत कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह मानना पड़ता है कि बड़े अवना बीव को सृष्टि अनादि काल से चली जा रही है। उपनिषदों के अन्दरकालीन वैदिक मतों में भी जीव का अस्तित्व इसी प्रकार अनादि स्वीकार किया गया है। यह कर्मवत्व की मान्यता की देन है। जिस अनादि कर्मसिद्धान्त को बाद में सभी वैदिक दर्शनों ने स्वीकार किया, वह इन दर्शनों की उत्पत्ति के पूर्व ही बैन परम्परा में विद्यमान था। इन अनन्तरकालीन परिवर्तित विचारधाराओं के सम्बन्ध में हिरियन्ना आदि का मन है कि इनमें ऐसे नवीन विचार उपलब्ध होते हैं, जो वेदों व ब्राह्मण-ग्रंथों में नहीं थे। उनमें संसार और कर्म-अदृष्ट विषयक नूतन विचार श्री दृष्टिगोचर होते हैं। कर्म कारण है ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्वसम्मत वाद हो, यह भी नहीं कहा जा सकता।" समस्त इतिहास को दृष्टि सन्मुख रखे तो वैदिकों पर जैनपरम्परा के कर्मवाद का व्यापक प्रभाव स्पष्टतः प्रतीत होता है।" इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि सृष्टि की अनादिता बाद में सभी को स्वीकृत हो गई। अतः आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में यही मान्य है कि ये दोनों अनादि हैं एवं इनका सम्बन्ध भी अनादि है। आत्मा (कर्मणात्मक) कर्मों के साथ बद्ध होकर अनादिकाल से चला आ रहा है। पंचाध्यायी में इसको स्पष्ट किया है: यथानादि स जीवात्मा यथानादिश्च पुद्गलः कर्मवाद / 94