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________________ - जैन दर्शन में नियतिवाद तो है परन्तु वह एकान्त नहीं है। कर्म में कई प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना भी व्यक्त की गई है। सामान्यतया यही निश्चित है-“कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि” अर्थात् जैसे कर्मों का व्यक्ति ने अर्जन किया है, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं होगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति कुछ भी पुरुषार्थ नहीं कर सकता। व्यक्ति के जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही स्पष्टतः समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। यही मानना वास्तव में युक्तियुक्त है। __भाग्य वास्तव में और कुछ भी नहीं है, प्राचीनकाल का पुरुषार्थ मात्र है, पूर्व जन्म या भूतकाल में किया गया कर्म दैव या भाग्य कहा जाता है तथा वर्तमान जीवन में जो कर्म किया जाता है, वह पुरुषकार या पुरुषार्थ कहा जाता है। कभी ऐसा होता है कि थोड़ा सा प्रयत्न करते ही सफलता मिल जाती है और कभी बहुत प्रयत्न करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं होती। इसका कारण अतीत में किये गये विभिन्न प्रकार के कर्म हैं, जो वर्तमान में हितकर या अहितकर,सद्भाग्य और दुर्भाग्य, सफलता या विफलता के रूप में प्रकट होते हैं। ....... जीवन में किये जाने वाले अनेक प्रकार के कार्य पुरुषार्थ रूप हैं जो अवश्य ही कालान्तर में फल देते हैं। तात्पर्य यही है कि भाग्य तथा पुरुषार्थ दोनों अन्योन्याश्रित-एक दूसरे पर टिके हुए हैं। अतः एकान्ततः भाग्य पर ही आश्रित न रहकर यदि कोई अपने पुरुषार्थ को बलवान करे तो कुछ परिवर्तन हो सकता है। यदि पुरुषार्थ का कुछ महत्त्व न होता तो आत्माएँ, जो अनादिकाल से कर्मबद्ध होती है, कभी भी मुक्त नहीं होती, किन्तु ऐसा होता नहीं। पौराणिक एवं जैन दोनों ही : मान्यताओं में पुरुषार्थ द्वारा व्यक्ति के कर्ममल का दूर होना स्वीकृत है। पुराणों में नियतिवाद वर्णित है परन्तु फिर भी जैन दर्शन के समान पुरुषार्थवाद भी मान्य है। महर्षि मनु के प्रश्न के समाधान में दैव तथा पुरुषार्थ में बड़ा कौन है यह बताते हुए मत्स्यावतार का कथन है कि दैव नामक जो है, वह अपना ही कर्म समझना चाहिए क्योंकि वह वही अपना किया हुआ कर्म है जो अन्य (पूर्व) देह के द्वारा अर्जित किया गया है, इसलिए मनीषी लोग संसार में पौरुष को ही श्रेष्ठ कहते हैं। यदि दैव प्रतिकूल भी होता है तो उसका पौरुष के द्वारा हनन हो जाता है। ऐसा देखा जाता है कि जो मंगल आचरण से युक्त और नित्य ही उत्थानशील लोग होते हैं वे पौरुष से प्रतिकूल दैव को विनष्ट कर देते हैं। जिन पुरुषों का पूर्व जन्मों में किया हुआ सात्विक कर्म होता है, ऐसे कुछ पुरुषों का अच्छा फल बिना पौरुष किये ही देखने में आता है। पौरुष के द्वारा भी मनुष्यों को आर्थिक फल की प्राप्ति हो जाती है। जो पौरुष से वर्जित होते हैं, वे तो केवल एक दैव को ही जानते हैं। अतः त्रिकाल से संयुक्त दैव सफल (फलदाता) होता है तथा पौरुष दैव की सम्मति से समय पर फल दिया करता है।५१ . .. 93 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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