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________________ पद्मपुराण में वैदिक धर्म के विरोध में मायामोह द्वारा दैत्यों को समझाया गया है। उसमें तीर्थ, वेद, यज्ञ, श्राद्ध आदि कई प्रमुख वैदिक सिद्धान्तों की आलोचना भी की गई है। इस सन्दर्भ में वहाँ कहा गया है कि “यज्ञ में वध किये हुए पशु से जो स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा की जाती है; यदि ऐसा ही है तो यजमान के द्वारा वहाँ पर अपने पिता का हनन क्यों नहीं किया जाता है? यदि अन्य के द्वारा खाये हुए से पितृगण की तृप्ति होती है तो प्रवास में रहने वाले को भी श्राद्ध दिया जाने से वह प्रवासी भी उसे प्राप्त कर तृप्त हो जाना चाहिए। भाग्य-पुरुषार्थ कर्मवाद के स्थान पर अन्य भी कुछ कारणों की कल्पना दार्शनिकों द्वारा की गई है। उनमें मुख्यतः हैं—कालवाद, स्वभाववाद, यदृच्छावाद, नियतिवाद, भूतवाद, पुरुषवाद, अज्ञानवाद आदि / इनको भी विश्ववैचित्र्य का एकमात्र कारण माना गया था।" जैन परम्परा के दार्शनिक काल में कर्म के साथ कालादि कारणों के समन्वय का प्रयल किया गया। कर्म को मुख्य कारण मानते हुए कालादि (काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ) को उसके सहकारी कारण माना है। आचार्य सिद्धसेन के अनुसार-“काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ, इन पाँच कारणों में से किसी एक को ही कारण माना जाए और शेष कारणों, की उपेक्षा की जाए, यह मिथ्यात्व है।४२ पूर्वोक्त कारणों में से नियतिवाद का ही अपर पर्याय भाग्यवाद अथवा दैववाद है। भाग्यवाद पोषक अनेक उक्तियाँ भारतीय साहित्य में प्रचलित हैं। यथा “भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या, न च पौरुषम्” “भाग्यहीनाः न पश्यन्ति बहुरत्ना वसुंधरा,” “यद् भाव्यं तद् भविष्यति / " गरूड़पुराण में भाग्य को सर्वोपरि मानते हुए कहा गया है कि इसके आगे किसी का वश नहीं चलता है। जिस अवस्था में, जिस समय में, जिस दिन, जिस रात, जिस मुहूर्त और जिस क्षण में जो भी जैसा होने वाला है, वही होकर रहता है, चाहे अन्तरिक्ष में चला जाये या महीतल में प्रवेश करे अथवा किसी भी दिशा में चला जाये। जो नहीं दिया है वह कहीं भी नहीं मिल सकता। पहले जन्म में जो विद्या का अध्ययन किया है, जो धर दान दिया है तथा जो कर्म किये हैं, वे सभी आगे दौड़कर चलते हैं। जिसका समय नहीं आया, वह सैकड़ों बाणों से भी नहीं मरता, अन्यथा एक कुशा के अग्र भाग से भी मर जाता है और किसी उपाय से वह जीवित नहीं रहता। मृत्यु का एक नियत समय होता है। शेष सब तो केवल निमित्त मात्र होते हैं। वास्तव में होता वही है जो होना है- . लब्धव्यमेव लभते, गन्तव्यमेव गच्छति प्राप्तव्यमेव प्राप्नोति, दुःखानि च सुखानि च कर्मवाद / 92
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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