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________________ जैन दर्शनवत् ही कर्मस्वातन्त्र्य सम्पादित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि देही (बात्मा) ही कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता है कर्ता भोक्ता व देही .. पुराणों में स्थान-स्थान पर कहा गया है कि शुभ या अशुभ जैसा भी फल व्यक्ति प्राप्त करता है, वह उसके स्वकृत कर्मों के परिणामस्वरूप ही मिलता है, अतः उसमें उसे व्याकुल नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार कमों के कर्तृत्व भोक्तृत्व के सम्बन्ध में उपनिषदों में भी बीन के लिए कर्ता और मोक्ता का प्रयोग हुबा है।५ कर्म का असंविभाग जैन दर्शन की कर्म सम्बन्धित विचारधारा का यह स्पष्ट मत है कि एक व्यक्ति के कर्म के फल दूसरा नहीं प्राप्त कर सकवा अथवा एक के लिए दूसरा कर्म नहीं कर सकता है। वस्तुतः आत्मा ही स्वयं अपना उत्थान-पतन करता है। विभावदशा में रमण करने वाला आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है और स्वभाव दशा में रमण करने वाला आत्मा ही कामधेनु और नन्दनवन है। शुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा ही स्वयं का मित्र है और उन्मार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है। . इसके विपरीत वैदिक विचारधारा के अनुसार एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति में विभक्त किया जा सकता है अर्थात् एक व्यक्ति अपने कर्मफल दूसरे को दे सकता है। बाद आदि प्रसंगों से यही निष्कर्ष निकलता है कि स्मार्त धर्मानुसार एक के कर्म का फल दूसरे को मिल सकता है। परन्तु जैन दर्शन इस विचारधारा का खण्डन करता है। वैदिक दर्शन तथा बौद्ध दर्शन की तरह वह कर्मफल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। यदि विभाग को स्वीकार किया जाये तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है? इसलिए कहा गया है कि कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं। अपने स्वयं के कर्मों से ही आत्मा बंधन में पड़ता है। . इस मन्तव्य का समर्थन पुराणों में भी दृष्टिगत होता है यद्यपि श्राद्ध आदि का वर्णन भी उनमें है, किन्तु फिर भी यह तो माना ही है कि-"पहले किया हुआ कर्म उसके करने वाले के साथ ही रहता है। जिस तरह सहस्रों धेनुओं में बछड़ा अपनी माता के पास ही पहुंच बाता है; इसी प्रकार से स्वकृत कर्म उसके करने वाले के समीप पहुंचता है और वह कहता है कि हे मूढ ! अपने स्वकृत कर्म-फल भोगने में ही क्या परिवाप कर रहा है? यह जो कुछ भी पापकर्म करता है, उसका कुफल भी यह अकेला ही भोगता है। इस भोग में और आवागमन में कोई भी अन्य साथी नहीं होता है।३९ . 1 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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