________________ अपने आत्मभाव में कभी स्थिर नहीं रह सकेगा। वस्तुतः इन प्रश्नों का कोई उत्तर * नहीं है। भले ही कोई स्वयं के कटु कमों का परिणाम नहीं भोगना चाहता है किन्तु उसे नियत समय पर भोगना ही पड़ता है। जैसे किसी स्वादलोलुप द्वारा अस्वास्थ्यकर भोजन कर लेने पर रोग हो जाते हैं, उसे इच्छा विरुद्ध व्याधि भोगनी पड़ती है। . अतः प्राणी के स्वकृत कमों का फल देने वाली ईश्वर नामक शक्ति-विशेष को न मानते हुए उस शरीर को माना है, जो आत्मा के साथ परलोक बाते समय भी. साथ रहता है, वह समस्त कर्मफलदाता, कर्मपुरल के अतिसूक्ष्म परमाणुओं से बना कार्मण शरीर है। जैन दर्शन की भाँति ही मीमांसा दर्शन, सांख्य दर्शन आदि ईश्वर कर्तृत्व को अमान्य करते हैं। आत्मा के कर्तृत्व को सिद्ध करते हुए हरिभद्रसूरि का यह कथन है कि “कर्म में आत्मा के परिणामों के अनुरूप परिणत होने की योग्यता है, इसी कारण आत्मा पर कर्तृत्व घटित होता है। यदि ऐसा न होता तो अतिप्रसंग दोष आता है; यह लोक में प्रसिद्ध ही है। यदि इसे अन्यथा अन्य प्रकार से माना जाए तो वह सब, जो हमारे जीवन में घटित होता है, औपचारिक मात्र होगा, वास्तविकता के न होने से वह अशोभन-अनिष्ट या अवांछित होगा।२८ जैनागमों का यही मन्तव्य है कि कमों का कर्ता एवं भोक्ता स्वयं कर्मबद्ध आत्मा है। अन्य किसी के द्वारा उसके कर्म करने, भोगने का कार्य सम्भव नहीं। एक के बदले दूसरा, उस कर्म का फल नहीं भोग सकता। अतः स्वकृत कर्मों का भोग स्वयं को ही करना पड़ता है एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खें" स्वयं आत्मा ही अपने सुख या दुःख का कर्ता है।" प्राणी स्वकृत कमों को ही भोगता है, अतएव किसी को, दूसरे के सुख-दुःख का, जीवन-मरण का कारण मानना मात्र एक कल्पना है, अज्ञान है। आचार्य अमितगति के अनुसार व्यक्ति स्वकृत कर्म द्वारा ही शुभाशुभ फल प्राप्त करता है। दूसरों के द्वारा दिया गया (किया गया) यदि प्राप्त होता हो तो उसके स्वकृत कर्म निरर्थक ही साबित हो जाते हैं। स्वकृत कर्मों को छोड़कर आत्मा को कोई कुछ नहीं देता।" इस प्रकार बैनदर्शन के कर्मवाद का यह निश्चित मत है सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता जैन दर्शन के इस मन्तव्य का समर्थन पुराणों में भी दृष्टिगत होता है। पुराणों के अनुसार भी–“सुख-दुःख का देने वाला या इनके हरण करने वाला कोई भी नहीं है। मनुष्य अपने ही किये हुए कर्मों के अनुसार, चाहे वह पहिले जन्मान्तरों के किये हों या इस जन्म के हों, सुख-दुःख का भोग करते है न दाता सुख-दुःखानां, न हर्तास्ति कश्चन . स्वकृतान्येव भुञ्जन्ते, दुखानि च सुखानि च॥" कर्मवाद / 10