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________________ 2. सांसारिक प्राणी अज्ञ है, यह अपने आप में सुख-दुःख रूप फल को स्वयं पाने में असमर्थ है, अतः ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर ही स्वर्ग या नरक में जाता है। 3. अपने आप में जड़ होने से कर्म फल नहीं दे सकते, अतः उनका फलदाता ईश्वर है। 4. “जीव अपने बुरे कर्मों का फल स्वयं नहीं भोगना चाहते, अत: भोगवाने वाली विशिष्ट शक्ति ईश्वर होना चाहिए। इन मतों का जैन दर्शन में खण्डन एवं समाधान किया है कि पुरुषकृत कर्म कई बार निष्फल प्रतीत होते हैं, अतः ईश्वर को फलदाता बनाने की आवश्यकता नहीं, फल के सम्बन्ध में क्या देर नहीं हो सकती? आज का बोया बीज तत्काल फल नहीं देता। इसी प्रकार कर्म का परिपाक होने पर उनका फल अवश्य ही प्राप्त होता है। कर्म और कर्मफल में कार्य-कारण का व्यभिचार कदापि नहीं हो सकता। वस्तुतः कर्म का सिद्धान्त बड़ा विलक्षण है। धर्मात्मा के दुःखी तथा पापात्मा के सुखी दीखने में भी क्रमशः उनके पुण्यानुबन्धी पापकर्म तथा पापानुबन्धी पुण्यकर्म कारण है। उनकी धार्मिकता और पापकर्म निष्फल नहीं होते, इस जन्म में नहीं तो भवान्तर में अवश्य फलित होते हैं / 25 - पद्मपुराणकार का भी इस सन्दर्भ में यही आशय है कि “यहाँ (संसार में) जो भी भला-बुरा कर्म मनुष्य करता है, तदनुसार फल वह परलोक में जाकर अवश्य भोगा करता है। पुण्यकर्म करने वाले पुरुष को भी यदि कोई दुःख उत्पन्न होता है तो उस दुःख के समय में किसी भी प्रकार का संताप नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह दुःख तो उसको पूर्व जन्म के देह के द्वारा किये हुए कर्मों के कारण ही उत्पन्न हुआ है। इसी भाँति पापों का आचरण करने वाले पुरुष को भी संसार में सुख की समुत्पत्ति हुआ करती है, उस सुख से उसे हर्ष नहीं करना चाहिए अर्थात् पापकर्म का कुछ भी बुरा फल नहीं होता-इस भ्रम में पड़कर हर्ष में फूलना नहीं चाहिए।"२६. . ईश्वर को कर्म फलदाता मानने पर अनेक दोष आएँगे यथा-ईश्वर प्रेरणा से ही व्यक्ति सब कुछ करता है तो वह दोषी नहीं होगा। जैसे शिकारी, चोर आदि के लिए ईश्वर ने जो निश्चित किया, वही वे करते हैं तो फिर उन्हें दोषी क्यों कहा जाता है? ईश्वर सर्वशक्तिमान् है तो उसे पहले ही दुष्कर्मों को रोक देना चाहिए। वह अपराधकर्मियों को कर्म करते ही फल क्यों नहीं दे देता? ईश्वर कृतकृत्य है, दयालु है, उसे सांसारिक झंझटों में पड़ने का लोभ या राग क्यों लगा। उसके द्वारा भयंकर हिंसात्मक दण्ड दिये जाने पर उसकी दयालुता में बाधा आती है। संसार में अनन्त जीव हैं, प्रत्येक जीव मन-वचन-काया से प्रतिक्षण कोई न कोई कर्म करता रहता है, इन सबका लेखा-जोखा रखना, उनका फल देना इतना दुष्कर है कि वह 89 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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