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________________ योग कारणों से प्रेरित होकर रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से चुम्बक की तरह आत्मा जो करता है, वह “कर्म".कहलाता है। कर्मविपाक कर्म के नाना प्रकार के पाक (उदय) को विपाक कहते हैं—“विपाको अनुभव शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप जो परिणाम प्राप्त होता है, वही कर्मविपाक कहलाता है। इन शुभाशुभ कमों का तथा उनके परिणामों का पुराण तथा जैन धर्म में प्रचुर विवेचन है। कर्म ही सुख-दुःख आदि सांसारिक विविधताओं का कारण है। जैनागम आचारांग सूत्र का यह स्पष्ट कथन है-“कम्मुणा उवाही जायई अर्थात् कर्म से समग्र उपाधियाँ-विकृतियाँ पैदा होती हैं। इसीलिए कहा गया है कि “एको दरिद्रो एको हि श्रीमानिति च कर्मणः। . ___ राजा-रंक,बुद्धिमान्-मूर्ख,सुरूप-कुरूप, धनिक-निर्धन,सबल-निर्बल,रोगी-निरोगी, भाग्यशाली-अभागा इन सबमें मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अन्तर दिखाई देता है वह सब कर्मकृत है। वह कर्म जीव (आत्मा) के बिना नहीं हो सकता। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? सभी प्राणी अपने कृत कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं।" जैन धर्म के समान ही पुराणों में भी वैषम्य का कारण कर्म को स्वीकार किया है। उनके अनुसार-यह आत्मा न तो देव है, न मनुष्य है और न पशु है, न ही वृक्ष है-ये भेद तो कर्मजन्य शरीर रूपी कृतियों का है। जीव स्वकर्मानुसार ही उत्पन्न होता है और कर्म से ही मृत्यु को प्राप्त होता है। सुख-दुःख, भय-शोक कर्म से ही होता है। कर्म के बल पर प्राणी इन्द्र, ब्रह्मपुत्र आदि बनता है। वह स्वकर्म से सालोक्यादि, मुक्ति चतुष्टय, सर्वसिद्धत्व तथा अमरत्व को भी प्राप्त कर सकता है। ब्राह्मणत्व, देवत्व, मनुजत्व, इत्यादि योनियों को प्राप्त करता है।१२ कर्मणा जायते जन्तु कर्मण्येव प्रलीयते। ... सुखं दुःखं भयं शोकं कर्मण्येव प्रपद्यते // . स्वकृत कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। जैनागमों के अनुसार अतीतकाल में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। सुख या दुःख व्यक्ति के किये गये कार्य के पारिश्रमिक के रूप में अवश्य मिलता है। उनके (कृतकों का) फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है। कडाण कम्माण न मोक्ख अत्वि५ जैनागमों के इस मन्तव्य का पुराणों में पर्याप्त समर्थन है। कर्म के फलभोग की अवश्यंभाविता वर्णित करते हुए गरूड़पुराणकार का कथन है-जिस कर्म ने ब्रह्मा 87 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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