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________________ कर्मवाद प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होता है, प्राणियों की परिस्थितियों में वैषम्य का भी एक अदृश्य कारण है, जो कर्म है। कर्म-बंधन और कुछ नहीं, एक क्रिया की प्रतिक्रिया है। जैसे अंकुर का मूल कारण बीज है और उसे जमीन एवं जल आदि मिलने से अंकुर फूटता है वैसे ही विभिन्नतायें परिस्थिति से अवश्य प्रभावित होती हैं, परन्तु परिस्थिति उसका मूल कारण नहीं है, मूल कारण तो कर्म है। प्रो. उपेन्द्र नारायण के अनुसार-“कर्मवाद का सिद्धान्त हिन्दुत्व की रीढ की हड्डी है / कर्म - विभिन्न अर्थ .. आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मवाद एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, कर्म सिद्धान्त लगभग सभी दर्शनों में दृष्टिगोचर होता है, विभिन्न दर्शनों के अनुसार कर्म के अनेक अर्थ होते हैं। कर्म का शाब्दिक अर्थ-कार्य-प्रवृत्ति अथवा क्रिया है अर्थात् जो कुछ भी किया जाता है वह कर्म है। प्रसिद्ध व्याकरणकार पाणिनि के अनुसार-“कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट जो हो वह कर्म है। कर्म का तात्पर्य मीमांसा-दर्शन में क्रिया-काण्ड या यज्ञादि अनुष्ठान बताया है। वैशेषिक दर्शन में कर्म की परिभाषा है-“जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और संयोग का विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे। सांख्य दर्शन में कर्म का 'संस्कार' अर्थ है। गीता में कर्मशीलता (कर्तव्य) के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त है। न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमनरूप पाँच क्रियाओं को कर्म कहा है। पुराणों में मुख्यतः दो अर्थों में कर्म प्रयुक्त है-(१) धार्मिक व्रत-नियम आदि क्रियाएँ तथा (2) प्राचीन कर्म संस्कार। जैन दर्शन में भी कर्म का मुख्यतः अर्थ-प्राचीन कर्म संस्कार है तथा कहीं-कहीं क्रिया (आचार, कर्तव्य) के लिए भी कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। कर्म का तात्पर्य कर्मग्रन्थ के अनुसार यह है-जीव की अपनी शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक क्रिया द्वारा अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, कर्मवाद / 86
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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