________________ वागरणगंथा एवं पण्हावागरणाई'- ऐसे बहुवचन प्रयोग मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इस काल में वाचनाभेद से या अन्य रूप में अनेक प्रश्नव्याकरण उपस्थित रहे होंगे। इन प्रश्नव्याकरणों की संस्कृत टीका सहित ताड़पत्रीय प्रतियां मिलना इस बात की अवश्य सूचक हैं कि ईसा की चौथी-पांचवीं शती में ये ग्रंथ अस्तित्व में थे, क्योंकि नोवीं-दसवीं शताब्दी में जब इनकी टीकाएं लिखी गईं, तो उसके पूर्व भी ये ग्रंथ अपने मूल रूप में रहे होंगे। सम्भवतः, ईसा की लगभग दूसरी-तीसरी शताब्दी में प्रश्नव्याकरण में निमित्तशास्त्र सम्बंधी सामग्री जोड़ी गई हो और फिर उसमें से ऋषिभाषित का हिस्सा अलग किया गया और उसे विशिष्ट रूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रंथ बना दिया गया। पुनः, लगभग सातवीं शताब्दी में यह निमित्तशास्त्र वाला हिस्सा अलग किया गया और उसके स्थान पर पांच आश्रव तथा पांच संवरद्वार वाला वर्तमान संस्करण रखा गया। जैसा कि मैंने सूचित किया कि प्रश्नव्याकरण के पूर्व के दो संस्करण भी चाहे उससे पृथक् कर दिए गए हों, किंतु वे ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन और प्रश्नव्याकरण नामक अन्य निमित्तशास्त्र के ग्रंथों के रूप में अपना अस्तित्व रख रहे हैं। आशा है, इस सम्बंध में विद्वद्वर्ग आगे और मन्थन करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा। प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु की समरूपता का प्रमाण ऋषिभाषित और प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तुओं की एकरूपता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक 31 वें अध्ययन में मिल जाता है। इसमें पार्श्व की दार्शनिक अवधारणाओं की चर्चा है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रंथकार ने स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि व्याकरणप्रभूति ग्रंथों में समाहित इस अध्ययन का ऐसा दूसरा पाठ भी मिलता है। यह मूल पाठ इस प्रकार है वागरणगंथाओं पभिति सामित्तं इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सति 19 इसका तात्पर्य तो यह है कि ऋषिभाषित की विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण