________________ में भी समाहित थी। यद्यपि यह एक विवादास्पद प्रश्न होगा कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु से ऋषिभाषित का निर्माण हुआ या ऋषिभाषित की विषयवस्तु से प्रश्नव्याकरण का, लेकिन यह सुस्पष्ट है कि किसी समय प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु समान थी और उनमें कुछ पाठान्तर भी थे, अत: वर्तमान ऋषिभाषित में प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का होना निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है, साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि मूल प्रश्नव्याकरण में पार्श्व आदि प्राचीन अर्हत् ऋषियों के दार्शनिक विचार एवं उपदेश निहित थे। प्रश्नव्याकरण और जयपायड की विषयवस्तु की आंशिक समानता 'प्रश्नव्यारणाख्य जयपायड' नामक जिस ग्रंथ का हमने उल्लेख किया है, उसकी विषय सामग्री निमित्तशास्त्र से सम्बंधित है। पुनः, उसमें कर्ता ने तीसरी गाथा में ‘पण्हं जयपायडं वोच्छं' कहकर के प्रश्नव्याकरण और जयपायड की समरूपता को स्पष्ट किया है। 20 प्रस्तुत ग्रंथ की इसी गाथा की टीका में ग्रंथ की विषयवस्तु को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इसमें 'नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखजीवनमरण' आदि सम्बंधी प्रश्न हैं। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि धवलाकार ने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख किया है, उसकी इससे बहुत कुछ समानता है। 21 प्रस्तुत ग्रंथ के विषयों में मुष्टिविभाग प्रकरण, नष्टिका चक्र, संख्या प्रमाण, लाभ प्रकरण, अस्त्रविभाग प्रकरण आदि ऐसे हैं, जिनकी विषयवस्तु समवायांग में प्रश्नव्याकरण के वर्णित विषयों से यत्किंचित् समान हो सकती है। 22 दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित होते हुए भी विद्वानों को इस ग्रंथ की जानकारी नहीं है। यह जैन निमित्तशास्त्र का प्राचीन एवं प्रमुख ग्रंथ है। ग्रंथ की भाषा को देखकर सामान्यतया यह अनुमान किया जा सकता है कि यह ईस्वी सन् की चौथी-पांचवीं शताब्दी की हो सकती है। ग्रंथ के लिए प्रयुक्त पायड या पाहुड शब्द से भी यह फलित होता है कि यह ग्रंथ लगभग पांचवीं शताब्दी के आसपास की रचना होना चाहिए, क्योंकि कसायपाहुड एवं कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रंथ इसी कालावधि के कुछ पूर्व की रचनाएं हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में भी विषयों का वर्गीकरण पाहुडों के रूप में हुआ है। अतः, यह सम्भावना हो (66)