________________ उत्तराध्ययन की समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ट प्रश्नों का व्याकरण है। हम यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि पूर्व में ऋषिभाषित ही प्रश्नव्याकरण का एक भाग था। ऋषिभाषित को परवर्ती आचार्यों ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन एवं ऋषिभाषित एक दूसरे से निकट रूप से सम्बंधित थे और किसी एक ही ग्रंथ के भाग थे। हरिभद्र (8 वीं शती) आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति (8/5) में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते हैं। तेरहवीं शताब्दी तक भी जैन आचार्यों में ऐसी धारणा चली आ रही थी कि ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है। जिनप्रभसूरि की विधिमार्गप्रपा में, जो 14 वीं शताब्दी की एक रचना है- स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित. का अन्तर्भाव उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समग्र रूप में एक ग्रंथ मानें, तो ऐसा लगता है कि उस ग्रंथ का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तरवर्ती भाग उत्तराध्ययन कहा जाता था। यह तो हुई प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात। अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्र प्रधान दूसरे संस्करण की क्या स्थिति हो सकती है- क्या वह भी किसी रूप में सुरक्षित है ? ___जहां तक निमित्तशास्त्र से सम्बंधित प्रश्नव्याकरण के दूसरे संस्करण के अस्तित्व में होने का प्रश्न है- मेरी दृष्टि में वह भी पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे प्रश्नव्याकरण से पृथक् कर उसके स्थान पर आश्रयद्वार और संवरद्वार नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है। श्री अगरचंदजी नाहटा ने जिनवाणी, दिसम्बर 1980 में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्नव्याकरण नामक कुछ अन्य ग्रंथों का संकेत किया है। प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' के नाम से एक ग्रंथ मुनि जिनविजयजी ने सिंघी जैन ग्रंथमाला के ग्रंथ क्रमांक 43 में संवत् 2015 में प्रकाशित किया है। यह ग्रंथ एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के आधार पर प्रकाशित किया गया है। ताड़पत्रीय प्रति खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के ज्ञानभण्डार जैसलमेर से प्राप्त हुई थी और यह विक्रम संवत् 1336 की (3)