________________ है, परवर्ती एवं प्रक्षिप्त मान भी लें, किंतु उसके 18 वें अध्ययन की 24 वीं गाथा, जो न केवल इसी गाथा के समरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा प्राचीन लगती है- प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के संवादरूप हैं, तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अंग ग्रंथ के भाग हो सकते हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निर्देश करते हुए स्थानांग, समवायांग और नंदीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं। उत्तराध्ययन के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें, तो स्पष्ट रूप से उनमें नमिपव्ववज्जा कापिलीय, संजयीया आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येकबुद्धों के संवादरूप मिलते हैं, जबकि विनयसुत्त, परिषह-विभक्ति, संस्कृत, अकाममरणीय, क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित हैं और केसी-गौतमीय, गद्दमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित कहे जा सकते हैं। अतः, प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की विषय- सामग्री से इस उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण हुआ है। . यद्यपि समवायांग एवं नंदीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया है, किंतु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है। जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं, स्थानांग ही ऐसा प्रथम ग्रंथ है, जो जैन आगम-साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप की सूचना देता है। मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांग में प्रस्तुत जैन साहित्य-विवरण के पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में अस्तित्व में नहीं आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप में था। पुनः, उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के अधीन मानने से ही सिद्ध हो सकता है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि 36 अपृष्ट का व्याख्यान करने के पश्चात 37 वें प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए उसमें पृष्ट, अपृष्ट और पृष्टापृष्ट प्रश्नों का विवेचन होना बताया गया है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरण और (62)