SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं और संख्यात् संग्रहणियां हैं। प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवां अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, पैंतालीस उद्देशन काल हैं, पैंतालीस समुद्देशन काल हैं, पद गणना की अपेक्षा संख्यात् लाख पद कहे गए हैं। इसमें संख्यात् अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित, जिनप्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किए जाते हैं, प्ररूपित किए जाते हैं, निदर्शित किए जाते हैं और उपदर्शित किए जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है।' (स) नंदीसूत्र-नंदीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो उल्लेख है, वह समवायांग के विवरण का मात्र संक्षिप्त रूप है। उसके भाव और भाषादोनों ही समान हैं, मात्र विशेषता यह है कि इसमें प्रश्नव्याकरण के 45 अध्ययन बताए गए हैं, जबकि समवायांग में केवल 45 समुद्देशन कालों का उल्लेख है, 45 अध्ययन का उल्लेख समवायांग में नहीं है। 5. (द) तत्त्वार्थवार्त्तिक- तत्त्वार्थवार्त्तिक में प्रश्नव्याकरण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि आक्षेप और विक्षेप के द्वारा हेतु और नय के आश्रय से प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्नव्याकरण कहते हैं। इसमें लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया जाता है। 6 (इ) धवला- धवला में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु बताई गई है, वह तत्त्वार्थवार्त्तिक में प्रतिपादित विषयवस्तु से किंचित् विभिन्नता रखती है। उसमें कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण में आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी- इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। उसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि आक्षेपणी कथा परसमयों (अन्य मतों) का निराकरण कर छह द्रव्यों और नव तत्त्वों का प्रतिपादन करती है। विक्षेपणी कथा परसमय के द्वारा स्वसमय पर लगाए गए आक्षेपों का निराकरण कर स्वसमय की स्थापना करती है। संवेदनी कथा पुण्यफल की कथा है। इसमें तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का विवरण है। निर्वेदनी कथा पापफल की कथा है, इसमें नरक, तिर्यंच,
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy