________________ शताब्दी के ग्रंथ स्वीकार किए गए हैं। प्रश्नव्याकरण नाम क्यों? 'प्रश्नव्याकरण'- इस नाम को लेकर प्राचीन टीकाकारों एवं विद्वानों में यह धारणा बन गई थी कि जिस ग्रंथ में प्रश्नों के समाधान किए गए हों, वह प्रश्नव्याकरण है। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्करण की विषयवस्तु प्रश्नोत्तर शैली में नहीं थी और न वह प्रश्नविद्या अर्थात् निमित्तशास्त्र से ही सम्बंधित थी। गुरु-शिष्य संवाद की प्रश्नोत्तर शैली में आगम ग्रंथ की रचना एक परवर्ती घटना है - भगवती या व्याख्याप्रज्ञप्ति इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि समवायांग एवं नंदीसूत्र में यह माना गया है कि प्रश्नव्याकरण में 108 पूछे गए, 108 नहीं पूछे गए और 108 अंशतः पूछे गए और अंशतः नहीं पूछे गए प्रश्नों के उत्तर हैं', किंतु यह अवधारणा काल्पनिक ही लगती है। प्रश्नव्याकरण की प्राचनीतम विषयवस्तु प्रश्नोत्तर रूप में थी या उसमें प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याओं का समावेश था- समवायांग और नंदीसूत्र के उल्लेखों के अतिरिक्त आज इसका कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रंथों को प्रश्नों के रूप में विभाजित करने की परम्परा थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आपस्तम्बीय धर्मसूत्र है, जिसकी विषयवस्तु को दो प्रश्नों में विभक्त किया है। इसके प्रथम प्रश्न में 11 पटल और द्वितीय प्रश्न में 11 पटल हैं। यह सम्पूर्ण ग्रंथ प्रश्नोत्तर रूप में भी नहीं हैं। इसी प्रकार, बौधायन धर्मसूत्र की विषयवस्तु भी प्रश्नों में विभक्त है। अतः, प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण या प्रश्नविद्या से सम्बंधित होने के कारण इसे प्रश्नव्याकरण नाम दिया गया था- यह मानना उचित नहीं होगा। वैसे इसका प्राचीन नाम ‘वागरण' (व्याकरण) ही था। ऋषिभाषित में इसका इसी नाम से उल्लेख है। ' प्राचीनकाल में तात्त्विक व्याख्या को व्याकरण कहा जाता था। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बंध में अन्य ग्रंथों में जो निर्देश हैंउससे वर्तमान प्रश्नव्याकरण निश्चय ही भिन्न है। यह परिवर्तन किस रूप में हुआ है, यही विचारणीय है। यदि हम ग्रंथ के कालक्रम को ध्यान में रखते हुए