________________ षट्खण्डागम धवला 1/1/2, खण्ड एक, भाग एक, पुस्तक एकपृष्ठ 103-4 अंतयडदसा णाम अंगं तेवीस लक्ख-अट्ठावीस-सहस्स-पदेहि 232800 एक्जेक्कमिह य तित्थे दारुणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण पाडिहेरं लक्ष्ण णिव्वागं गदे दस दस वण्णदि। उक्तं च तत्वार्थभाष्ये - संसारस्यान्तःकृतो यैस्तेऽन्तेकृतः नमि-मतंग सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शनयमलीक-वलीक कि ष्कं विल पालम्बष्टपुत्रा इति एते दश वर्द्धमानतीर्थंकरतीर्थे। एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये, एवं दश दशानगाराः दारूणानुप-सर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयावस्तकृतो दशास्यां वर्ण्यन्त इति अंतकृद्दशा। प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों ही परम्पराएं यह स्वीकार करती हैं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र (पण्हवागरण) जैन अंग-आगम साहित्य का दसवां अंग-ग्रंथ है, किंतु दिगम्बर परम्परा के अनुसार अंग-आगम साहित्य का विच्छेद (लुप्त) हो जाने के कारण वर्तमान में यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा अंग साहित्य का विच्छेद नहीं मानती है, अतः उसके उपलब्ध आगमों में प्रश्नव्याकरण नामक ग्रंथ आज भी पाया जाता है, किंतु समस्या यह है कि क्या श्वेताम्बर परम्परा के वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु वही है, जिसका निर्देश अन्य श्वेताम्बर प्राचीन आगम ग्रंथों में है, अथवा यह परिवर्तित हो चुकी है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बंधी प्राचीन निर्देश श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग (ठाणांग), समवायांग, अनुयोगद्वार एवं नंदीसूत्र में और दिगम्बर परम्परा के राजवार्त्तिक, धवला एवं जयधवला नामक टीका ग्रंथों में उपलब्ध हैं। इनमें स्थानांग और समवायांग लगभग तीसरी-चौथी शती एवं नंदी लगभग पांचवींछठवीं शताब्दी, राजवार्तिक आठवीं शताब्दी तथा धवला एवं जयधवला दसवीं