________________ में जानकारी कैसे हो गई। मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के सम्बंध में दिगम्बर परम्परा में जो कुछ जानकारी प्राप्त हुई है, वह यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री अंतकृद्दशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बंधी जानकारी अनुश्रुति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्त्तिककार तक पहुंची हो। तत्त्वार्थवार्त्तिककार को भी कुछ नामों के सम्बंध में अवश्य ही भ्रांति है, अगर उसके सामने मूल ग्रंथ होता, तो ऐसी भ्रांति की सम्भावना नहीं रहती। जमाली का तो संस्कृत रूप यमलीक हो सकता है, किंतु भगाली या भयाली का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार, किंकम का किष्कम्बल रूप किस प्रकार बना, यह भी विचारणीय है। चिल्वक या पल्लतैत्तीय के नाम का अपलाप करके पालअम्बष्टपुत्त को भी अलग-अलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्त्तिककार के समक्ष मूल ग्रंथ नहीं है, केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। जहां श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषयवस्तु सम्बंधी दोनों ही प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं, वहां दिगम्बर आचार्यों को (मात्र प्राचीन संस्करण) उपलब्ध अंतकृद्दशा की विषयवस्तु के सम्बंध में, जो कि छठवीं शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी, कोई जानकारी नहीं थी, अतः उनका आधार केवल अनुश्रुति था ग्रंथ नहीं, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में आचार्यों का आधार एक ओर ग्रंथ था, तो दूसरी ओर स्थानांग का विवरण। धवला और जयधवला में अंतकृद्दशा सम्बंधी जो विवरण उपलब्ध है, वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवार्त्तिक पर आधारित है। स्वयं धवलाकार वीरसेन उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' कहकर उसका उल्लेख करता है। इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन विषयवस्तु का कोई ग्रंथ उपस्थित नहीं था। __अतः, हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि प्राचीन अंतकृद्दशा की विषयवस्तु ईसा की चौथी-पांचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित हो चुकी थी और छठवीं शताब्दी के अंत तक वर्तमान अंतकृद्दशा अस्तित्व में आ चुकी थी। संदर्भ : 1. स्थानांग (सं. मधुकरमुनि) दशम स्थान, सूत्र 110 एवं 113 . 47