________________ लगता है कि समवायांगकार के सामने स्थानांग में उल्लिखित अंतकृद्दशा लुप्त हो चुकी थी और मात्र उसमें 10 अध्ययन होने की स्मृति ही शेष थी तथा उसके स्थान पर वर्तमान उपलब्ध अंतकृद्दशा के कम से कम सात वर्गों का निर्माण हो चुका था। नंदीसूत्रकार अंतकृद्दशा के सम्बंध में जो विवरण प्रस्तुत करता है, वह बहुत कुछ तो समवायांग के समान ही है, किंतु उसमें स्पष्ट रूप से इसके आठ वर्ग होने का उल्लेख प्राप्त है। समवायांगकार जहां अंतकृद्दशा के दस समुद्देशन कालों की चर्चा करता है, वहां नंदीसूत्रकार उसके आठ उद्देशन कालों की चर्चा करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वर्तमान में उपलब्ध अंतकृद्दशा की रचना समवायांग के काल तक बहुत कुछ हो चुकी थी और वहीं अंतिम रूप से नंदीसूत्र की रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में आ चुका था। श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध तीनों विवरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अंतकृद्दशा के प्रथम संस्करण की विषय-वस्तु किस प्रकार से उससे अलग कर दी गई और नंदीसूत्र के रचनाकाल तक उसके स्थान पर नवीन संस्करण किस प्रकार अस्तित्व में आ गया। .. . यदि हम दिगम्बर साहित्य की दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करें, तो हमें सर्वप्रथम तत्त्वार्थवार्त्तिक में अंतकृद्दशा की विषयवस्तु से संबंधित विवरण उपलब्ध होता है। उसमें निम्न दस अध्ययनों की सूचना प्राप्त होती है- नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कम्बल और पातालम्बष्ठपुत्र। यदि हम स्थानांग में उल्लिखित अंतकृद्दशा के दस अध्ययनों से इनकी तुलना करते हैं, तो उसके यमलिक और वलिक- ऐसे दो नाम हैं, जो स्थानांग के उल्लेख से भिन्न हैं। वहां इनके स्थान पर जमाली, भयाली (भगाली)- ऐसे दो अध्ययनों का उल्लेख है। पुनः, चिल्वक का उल्लेख तत्त्वार्थवार्त्तिककार ने नहीं किया है। उसके स्थान पर पाल और अम्बष्ठपुत्र- ऐसे दो अलग-अलग नाम मान लिए हैं। यदि हम इसकी प्रामाणिकता की चर्चा में उतरें, तो स्थानांग का विवरण हमें सर्वाधिक प्रामाणिक लगता है। स्थानांग में अंतकृद्दशा के जो दस अध्याय बताए गए हैं, उनमें नमि