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________________ पहचानना, मन की ग्रंथियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। बीमारी का ज्ञान या बीमारी का निदान, बीमारी से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है। आधुनिक मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण-विधि में भी मनोग्रंथियों से मुक्त होने के लिए उनका जानना आवश्यक माना गया है। अन्तर्दर्शन जहां आधुनिक मनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण विधि मानी गई है, वहीं उसे निर्ग्रन्थ साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुतः, आचारांगसूत्र की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति सतत जागरूकता है। चित्तवृत्तियों का दर्शन ही सम्यक्-दर्शन है, स्व-स्वभाव में रमण है। आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोग्रंथियों के तोड़ने की बात कहता है, उसी प्रकार जैनदर्शन भी आत्मशुद्धि के लिए ग्रंथि-भेद की बात कहता है। ग्रन्थि, ग्रन्थि-भेद और निर्ग्रन्थ शब्द के प्रयोग स्वयं आचारांगसूत्र की मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुतः, ग्रन्थियों से मुक्ति ही साधना का लक्ष्य है (गंथेहिं विवत्तेहिं आयुकालस्सपारए 1/8/8/27) जो ग्रन्थियों से रहित है, वही निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थ होने का अर्थ है- राग-द्वेष या आसक्तिरूपी गांठ का खुल जाना। जीवन में अंदर और बाहर से एकमय हो जाना, मुखौटा की जिंदगी से दूर हो जाना, क्योंकि ग्रंन्थि का निर्माण होता है-रागभाव से, आसक्ति से। इस प्रकार, आचारांगसूत्र एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता है। आचारांगसूत्र के अनुसार बंधन और मुक्ति के तत्त्व बाहरी नहीं, आंतरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि बंधप्पमोक्खो तुज्झऽज्झत्थेव- 1/5/2/155, बंधन और मोक्ष हमारे अध्यवसायी किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बंधन ही वास्तविक बंधन है। वे गांठें, जिन्होंने हमें बांध रखा है, वे हमारे मन की ही गांठे हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि कामेसु गिद्धा णिचयंकरेति -1/ 3/2/113, कामभोगों के प्रति आसक्ति से ही बंधन की सृष्टि होती है। वह गांठ, जो हमें बांधती है- आसक्ति की गांठ है, ममत्व की गांठ है, अज्ञान की गांठ है। इस आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है, यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। (एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए१/१/२/१५) आचारांगसूत्र के अनुसार विषयभोग के प्रति जो आतुरता है, वही समस्त पीड़ाओं की जननी है। आतुरा परिताउति 1/1/2/11) / यहां हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त (26)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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