________________ पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण __आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है- जे आता से विनाता, जे विनाता से आता। जेण विजाणति से आता। तं पडुच्च पडिसंखाये। - (1/5/5/171) / इस प्रकार, वह ज्ञान को आत्म-स्वभाव या आत्म-स्वरूप बताता है। जहां आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प- ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहीं आचारांगसूत्र आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल-दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अंतर प्रतीत होता है, किंतु अनुभूति (वेदना) और संकल्प- यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं, अतः शुद्ध आत्मा का लक्षण तो मात्र ज्ञान है, पुनः, अनुभूति और संकल्प ज्ञानप्रसूत हैं, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे आचारांगसूत्र में और परवर्ती जैन ग्रंथों में भी मनोविज्ञानसम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र में आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि सम्भव नहीं है, जब तक सुख दुःखात्मक वेदना की अनुभूति है, या संकल्प-विकल्पचक्र चल रहा है, आत्मा परभाव में स्थित होती है, चित्त में समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव-धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता-द्रष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होती है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूप उपलब्ध नहीं है, प्रयास साध्य है। मन का ज्ञान साधना का प्रथम चरण निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है- जे मणं परिजाणति से णिग्गंथे जे य मण अपावए- 2/15/778 जो मन को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है, वही निर्ग्रन्थ है। इस प्रकार, निर्ग्रन्थ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है- मन को जानना और दूसरा चरण है- मन को अपवित्र नहीं होने देना। मन की शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का मतलब है- अंदर झांककर अपनी मनोवृत्तियों को