________________ के सिद्धांत एवं नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक मनोवैज्ञानिक दृष्टि सन्निहित है। आचारांग की मनोवैज्ञानिक दृष्टि आचारांगसूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बंधी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है अत्थि में आया उववाइए, णत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि। (1/1/1/3) इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं, अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के उपरांत किस रूप में होऊंगा? यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्वप्रथम उठाया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य के लिए मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्व-बोध या स्वरूप-बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या और कैसी होगी? यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और अपने स्वभाव के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएं अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं, इसीलिए सूत्रकार ने कहा है कि जो इस ‘अस्तित्व' या स्व-सत्ता को जान लेता है, वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है। (से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी-१/१/१/३) व्यक्ति के लिए मूलभूत और सारभूत तत्त्व उसका अपना अस्तित्व ही है और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रंथकार ने अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक में भी जिजीविषा और जिज्ञासा को मानव की मूल प्रवृत्तियां माना गया है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्त्व देते हुए तो यहां तक कहा गया है कि संसयं परिजाणतो संसारे परिण्णते- (5/1/149), अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान है। आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक (24)