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________________ इंद्रियविजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि आचारांग का आचारपक्षं व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा सकता है, किंतु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता। आचारांग की मनोवैज्ञानिक दृष्टि प्रस्तुत शोध-निबंध का उद्देश्य आचारांगसूत्र में वर्णित मनोवैज्ञानिक तथ्यों का आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में विश्लेषण एवं मूल्यांकन करना है। आचारांगसूत्र जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रंथ है, जबकि विज्ञान की एक स्वतंत्र विधा के रूप में मनोविज्ञान का विकास अभी-अभी ही हुआ है। इस प्रकार, कालक्रम की दृष्टि से दोनों में लगभग दो सहस्त्राब्दियों का अंतर है। यह भी एक सत्य है कि आचारांगसूत्र मनोविज्ञान का ग्रंथ न होकर आचारशास्त्र का ग्रंथ है और इसलिए उसमें मनोवैज्ञानिक तथ्यों का विवेचन उस रूप में तो उपलब्ध नहीं है, जिस रूप में वह एक मनोविज्ञान की पुस्तक में पाया जाता है, फिर भी उसमें आचार के सिद्धांतों और नियमों के लिए जिस मनोवैज्ञानिक आधारभूमि और मनोवैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया गया है, वह तुलनात्मक अध्ययन के लिए गवेषणीय है। ____ आचारांगसूत्र मुख्यतः श्रमण आचार के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष को प्रस्तुत करता है। चूंकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अत: यह स्वाभाविक है कि आचार के सम्बंध में कोई भी प्रामाणिक चिंतन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहिए- यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं? और क्या हो सकते हैं? हमारी क्षमताएं एवं सम्भावनाएं क्या हैं? आचरण के किसी साध्य और सिद्धांत का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना सम्भव नहीं है। प्रस्तुत निबंध में हमें यह देखना है कि आचारांगसूत्र में आचार (23)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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