________________ गया है और साधक को कहा गया है कि वह कर्म शरीर का ही विधूनन करे। इस प्रकार, आचारांग में आश्रव, संवर और प्रकारान्तर से निर्जरा की व्यवस्थाएं भी उपलब्ध हो जाती हैं। आचारांग मुक्तात्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप की भी औपनिषदिक शैली में व्याख्या करता है। अतः, हम यह कह सकते हैं कि संक्षेप में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, बंधन, आश्रव, संवर, निर्जरा और मुक्ति- इन सब अवधारणाओं को चाहे संक्षेप में ही क्यों न सही, स्वीकार करके चलता है, फिर भी उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि आचारांग, दर्शन के सम्बंध में केवल उन्हीं तथ्यों को रखना चाहता है, जो उसके आधार-शास्त्र की पूर्व मान्यता के लिए अपरिहार्य हैं। जैनधर्म का जो विकसित तत्त्वज्ञान है, उसका उसमें अभाव ही देखा जाता है, जीव और पुद्गल को छोड़कर आकाश, धर्म, अधर्म और काल की उसमें कोई स्वतंत्र व्याख्याएं नहीं हैं। आचारांग के आचार-नियम .. जहां तक आचारांग में प्रतिपादित आचार-नियमों का प्रश्न है, मूलतः वे सभी नियम अहिंसा को केंद्र में रखकर बनाए गए हैं। आचारांग के आचार नियमों का केंद्रबिंदु अहिंसा का परिपालन ही है। जीवन में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरम सीमा तक अपनाया जा सकता है, इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग के दो श्रुतस्कंधों में जहां प्रथम श्रुतस्कंध आचार के सामान्य सिद्धांतों को प्रस्तुत करता है, वहां द्वितीय श्रुतस्कंध उसके व्यवहार पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कंध को प्रथम श्रुतस्कंध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कंध में मूलतः अहिंसा, अनासक्ति तथा कषायों और वासनाओं के विजय का सूत्ररूप में संकेत किया गया है, जबकि दूसरे श्रुतस्कंध में इनसे अमर उठकर, कैसा जीवन जिया जा सकता है, इसका चित्रण किया गया है। दूसरा श्रुतस्कंध, मूलतः मुनिजीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाए, इसका विस्तार से विवेचन करता है। इस श्रुतस्कंध का अंतिम भाग जहां एक ओर महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी ओर वह (22)