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________________ होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुम चेव तं सल्लंमाहह। (1/2/4/83) / हे धीर पुरुष! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्सम्बंधी संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो। स्वयं इस कांटे को अपने अन्तःकरण में रखकर दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांगसूत्र बंधन, पीड़ा या दुःख के प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि जे आसवा, ते परिस्सवा, जे परिस्सवा, ते आसवा (1/4/2/ 134), अर्थात् बाहर में जो बंधन के निमित्त हैं, वे कभी मुक्ति के निमित्त बन जाते हैं और जो मुक्ति के निमित्त हैं, वे ही कभी बंधन के निमित्त बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बंधन और मुक्ति का सारा खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें, तो यह पाते हैं कि आकांक्षाओं का उच्च स्तर ही मन में कुण्ठाओं को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियां उत्पन्न करती हैं। मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि __पुनः, मन को अपवित्र नहीं होने देने के लिए भी मन की वृत्तियों को देखना जरूरी है, क्योंकि यह मन को दुष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार, मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर सकता है, इसलिए कहा गया अप्पमत्तो कामेहिं उवरतो पावकम्मेहिं (1/2/1/109), सव्वतो पमत्तस्य भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स णत्थि भयं (1/3/1/129), जो अप्रमत्त है, वह कामनाओं से और पापकर्मों से उपरत है, प्रमत्त को ही विषय-विकार में फंसने का भय है, अप्रमत्त को नहीं। अप्रमत्तता या सम्यक् द्रष्टा की अवस्था में पापकर्म बंध नहीं होता है, इसीलिए कहा गया- सम्मत्तदंसी न करेति पावं (1/3/2/ 112), सम्यक् -द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है। आचारांगसूत्र में मन को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक ऐसा उपाय है, जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से मुक्त होकर द्रष्टाभाव में स्थित होता है, तब सारी वासनाएं और सारे आवेग स्वतः शिथिल हो जाते हैं। इसी प्रकार, अन्यत्र यह कहकर भी 'आयंक.दंसी न (27)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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