SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग में लोकसंज्ञा के रूप में लोकायत दर्शन का निर्देश - जैन परम्परा में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध अतिप्राचीन माना जाता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि इस ग्रंथ में स्वयं महावीर के वचनों का संकलन हुआ है। इसका रचनाकाल चौथी-पांचवीं शताब्दी ई.पू. माना जाता है। आचारांग में स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन का उल्लेख तो नहीं है, किंतु इस ग्रंथ के प्रारम्भ में ही लोकायत दर्शन की पुनर्जन्म का निषेध करने वाली अवधारणा की समीक्षा की गई है। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता है कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म करने वाली) है, मैं कहां से आया हूं और यहां से अपना जीवन समाप्त करके कहां जन्म ग्रहण करुंगा? सूत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली) है, जो इन दिशाओं और विदिशाओं में संचरण करती है और मैं भी ऐसा ही हूं, वस्तुतः, जो यह जानता है- वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। इस प्रकार, इस ग्रंथ के प्रारम्भ में ही चार्वाकदर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध चार बातों की स्थापना की गई है- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद। आत्मा की स्वतंत्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना आत्मवाद है। संसार को यथार्थ मानकर आत्मा को लोक में जन्ममरण करने वाला समझना लोकवाद है। शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों में विश्वास करना कर्मवाद है। आत्मा को शुभाशुभ कर्मों की कर्ता-भोक्ता एवं परिणामी (परिवर्तनशील) मानना क्रियावाद है। इसी प्रकार, आचारांग में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धांतों में विश्वास करने का निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाकदर्शन का निर्देश लोकसंज्ञा के रूप में हुआ है। लोकसंज्ञा से ही लोकायत नामकरण हुआ होगा। यद्यपि इस ग्रंथ में इन मान्यताओं की समालोचना तो की गई है, किंतु उसकी कोई तार्किक भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई है। सूत्रकृतांग में लोकायत दर्शन आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग का क्रम आता है। इसके प्रथम श्रुतस्कंध को भी विद्वानों ने अतिप्राचीन (लगभग ई.पू. चौथी शती) माना है। सूत्रकृतांग के प्रथम अध्याय में इसमें चार्वाक -दर्शन के पंचमहाभूतवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसमें पंचमहाभूतवाद को प्रस्तुत
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy