________________ जैन आचार्यों ने पयेसी का संस्कृत रूप प्रदेशी मान लिया है, किंतु देववाचक, सिद्धसेनगणि, मलयगिरि और मुनिचंद्रसूरि ने पयेसी का संस्कृत रूप प्रसेनजित् ही माना है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्रामाणिक लगता है। प्रसेनजित् को श्वेताम्बिका (सेयंविया) नगरी का राजा बताया गया है, जो इतिहाससिद्ध है। उनका सारथि चित्त केशीकुमार को श्रावस्ती से यहां केवल इसीलिए लेकर आया था कि राजा की भौतिकवादी जीवनदृष्टि को परिवर्तित किया जा सके। कथावस्तु की प्राचीनता, प्रामाणिकता तथा तार्किकता की दृष्टि से ही इसे भी प्रस्तुत विवेचन में समाहित किया गया है। प्रस्तुत विवेचना में मुख्य रूप से चार्वाक-दर्शन के तजीवतच्छरीरवाद एवं उसकी परलोक तथा पुण्य-पाप की अवधारणाओं का पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ समीक्षाएं भी प्रस्तुत की गई हैं। इनमें भी ऋषिभाषित (ई.पू. चौथी शती) में चार्वाकों की जीवनदृष्टि का जो प्रस्तुतिकरण है, वह उपर्युक्त विवरण से कुछ विशिष्ट प्रकार का है। उसमें दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, स्तेनोक्कल, देसोक्कल, सव्वोक्कल के नाम से इनके जिन पांच प्रकारों का उल्लेख है, वह भी अन्यत्र किसी भी भारतीय दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार, सूत्रकृतींग के द्वितीय श्रुतस्कंध एवं राजप्रश्नीय में चार्वाकदर्शन की स्थापना और खण्डन- दोनों के लिए जो तर्क प्रस्तुत किए गए हैं, वे भी महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, प्राकृत आगमिक-व्याख्या साहित्य में, मुख्यतः विशेषावश्यकभाष्य (छठवीं शती) के गणधरवाद' में चार्वाक दर्शन की विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा-महावीर और गौतम आदि 11 गणधरों के मध्य हुए वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है, वह भी दार्शनिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। अन्य आगमिक संस्कृत टीकाओं (१०वीं-११वीं शती) में भी चार्वाकदर्शन की जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षाओं में दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध है। चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि के अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रंथों में भी भौतिकवादी जीवनदृष्टि की समीक्षाएं उपलब्ध हैं, किंतु इन सबको तो किसी एक स्वतंत्र ग्रंथ में ही समेटा जा सकता है। अतः, इस निबंध की सीमा-मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए हम अपनी विवेचना को पूर्व निर्देशित प्राचीन स्तर के प्राकृत आगमों तक ही सीमित रखेंगे। (167)