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________________ करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और आकाश- ऐसे पांच महाभूत माने गए हैं। उन पांच महाभूतों से ही प्राणी की उत्पत्ति होती है और देह का विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है, साथ ही यह भी बताया गया है कि व्यक्ति चाहे मूर्ख हो या पण्डित, प्रत्येक की अपनी आत्मा होती है, जो मृत्यु के बाद नहीं रहती। प्राणी औपपातिक अर्थात् पुनर्जन्म ग्रहण करने वाले नहीं हैं। शरीर का नाश होने पर देही अर्थात् आत्मा का भी नाश हो जाता है। इस लोक से परे न तो कोई लोक है और न पुण्य और पाप ही है। इस प्रकार, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध में चार्वाकदर्शन की मान्यताओं का उल्लेख मिलता है, किंतु यहां भी उनकी कोई स्पष्ट तार्किक समालोचना परिलक्षित नहीं होती है। यद्यपि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में चार्वाकदर्शन की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, किंतु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना है, अतः उसके पूर्व हम उत्तराध्ययन का विवरण प्रस्तुत करेंगे। उत्तराध्ययन में लोकायतदर्शन उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन को जन-श्रद्धा (जन-सिद्धि) कहा गया है। सम्भवतः, लोकसंज्ञा और जनश्रद्धा- ये लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष विषय हैं। परलोक को तो हमने देखा ही नहीं। वर्तमान के काम-भोग हस्तगत हैं, जबकि भविष्य में मिलने वाले (स्वर्ग-सुख) अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं? इसलिए मैं तो जनश्रद्धा के साथ होकर रहूंगा।१९ इस प्रकार, उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में चार्वाकों की पुनर्जन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन किया गया है। इसी प्रकार, उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति का एवं पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है, जो वस्तुतः असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धांत है। यद्यपि उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता है। उसमें कहा गया है कि जैसे अरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है।१२
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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