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________________ को चीरकर आग पाने की इच्छा रखने वाला उक्त मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही शरीर को चीरकर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख नहीं हो। जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, किंतु शरीर को चीरकर उसे देखने की प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खतापूर्ण है, जैसे अरणि को चीर फाड़कर अग्नि को देखने की प्रक्रिया। अतः, हे राजन्! यह श्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है। यहां यह कहा जा सकता है कि ये सभी तर्क वैज्ञानिक युग में इतने सबल नहीं रह गए हैं, किंतु ई.पू. सामान्यतया चार्वाकों के पक्ष के समर्थन में और उनका खण्डन करने के लिए ये ही तर्क प्रस्तुत किए जाते थे, अत: चार्वाक दर्शन के ऐतिहासिक विकास-क्रम की दृष्टि से इनका अपना महत्त्व है। जैन और बौद्ध-परम्परा में इनमें अधिकांश तर्क समान होने से इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता और प्राचीनता भी स्वतःसिद्ध है। जैन साहित्य में दार्शनिक दृष्टि से जहां तक चार्वाक दर्शन के तर्क पुरस्सर प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा का प्रश्न है- सर्वप्रथम उसे आगमिक व्याख्या साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ विशेषावश्यकभाष्य (ईस्वी सन् की छठवीं शती) में देखा जा सकता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा ईस्वी सन् की छठवीं शती में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रंथ की लंगभग 500 गाथाएं तो आत्मा, कर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, बंधन-मुक्ति आदि अवधारणाओं की तार्किक समीक्षा से सम्बंधित हैं। इस ग्रंथ का यह अंश गणधरवाद के नाम से जाना जाता है और अब स्वतंत्र रूप से प्रकाशित भी हो चुका है। प्रस्तुत निबंध में इस समग्र चर्चा को समेट पाना सम्भव नहीं था, अतः इस निबंध को यहीं विराम दे रहे हैं।
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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