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________________ पर यह श्रद्धा रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। ___ केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया। राजा ने कहा कि मैंने एक चोर को जीवित ही लोहे की कुम्भी में बंद करवाकर अच्छी तरह से लोहे से उसका मुख ढंक दिया, फिर उस पर गरम लोहे और रांगे से लेप करा दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रख दिया। कुछ दिन पश्चात् मैंने उस कुम्भी को खुलवाया, तो देखा कि वह मनुष्य मर चुका था, किंतु उस कुम्भी में कोई भी छिद्र, विवर या दरार नहीं थी, जिससे उसमें बंद पुरुष का जीव बाहर निकला हो, अत: जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। इसके प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया जिस प्रकार एक ऐसी कुटागारशाला, जो अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार गुप्त हो, यहां तक कि उसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सके, यदि उस कुटागारशाला में कोई व्यक्ति जोर से भेरी बजाए, तो तुम बताओ कि वह आवाज बाहर सुनाई देगी कि नहीं? निश्चय ही वह आवाज सुनाई देगी, अतः जिस प्रकार शब्द अप्रतिहत गतिवाला है, उसी प्रकार आत्मा भी अप्रतिहत गतिवाला है, अतः तुम वहां श्रद्धा करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। (ज्ञातव्य है कि अब यह तर्क विज्ञानसम्मत नहीं रह गया है, यद्यपि आत्मा की अमूर्त्तता के आधार पर भी राजा के उपर्युक्त तर्क का प्रत्युत्तर दिया जा सकता है।) केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया - मैंने एक पुरुष को प्राणरहित करके एक लौहकुम्भी में सुलवा दिया तथा ढक्कन से उसे बंद करके उस पर रांगे का लेप करवा दिया। कुछ समय पश्चात् जब उस कुम्भी को खोला गया, तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा, किंतु उसमें कोई दरार या छिद्र नहीं था, जिससे उसमें जीव प्रवेश करके उत्पन्न हुए हों, अतः जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने अग्नि से तपाए लोहे के गोले का उदाहरण दिया। जिस प्रकार लोहे में छेद नहीं होने पर भी अग्नि उसमें प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार जीव भी अप्रतिहत गतिवाला होने से कहीं भी प्रवेश कर जाता है।
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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