________________ वहां से नहीं आ सकते। अतः, तुम्हारे पितामह के द्वारा तुम्हें आकर प्रतिबोध न दे पाने के कारण यह मान्यता मत रखो कि जीव और शरीर एक ही हैं, अपितु यह मान्यता रखो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। स्मरण रहे कि दीघनिकाय में भी नरक से मनुष्यलोक में न आ पाने के इन्हीं चार कारणों का उल्लेख किया गया है। केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने दूसरा तर्क प्रस्तुत किया। हे श्रमण! मेरी दादी अत्यंत धार्मिक थीं, आप लोगों के मत अनुसार वह निश्चित ही स्वर्ग में उत्पन्न हुई होगी। मैं अपनी दादी का अत्यंत प्रिय था; अत: उसे मुझे आकर यह बताना चाहिए कि हे पौत्र! अपने पुण्य कर्मों के कारण मैं स्वर्ग में उत्पन्न हुई हूं। तुम भी मेरे समान धार्मिक जीवन बिताओ, जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन कर स्वर्ग में उत्पन्न होओ। क्योंकि मेरी दादी ने स्वर्ग से आकर मुझे ऐसा प्रतिबोध नहीं दिया, अतः मैं यही मानता हूं कि जीवन और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। राजा के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया- हे राजन् ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुकमंगल करके देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो, उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि हे स्वामिन् ! यहां आओ ! कुछ समय के लिए यहां बैठो, खड़े होओ, तो क्या तुम उस पुरुष की बात को स्वीकार करोगे। निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं चाहोगे। इसी प्रकार, हे राजन् ! देवलोक में उत्पन्न देव वहां के दिव्य कामभागों में इतने मूर्च्छित, गृधु और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्यलोक में आने की इच्छा नहीं करते। दूसरे, देवलोक सम्बंधी दिव्य भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बंधी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है, अत: वे मनुष्यलोक में नहीं आ पाते। तीसरे, देवलोक में देव वहां के दिव्य कामभोगों में मूञ्छित या तल्लीन होने के कारण, अभी जाता हूं, अभी जाता हूं- ऐसा सोचते रहते हैं, किंतु उतने समय में अल्पायुष्य वाले मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। (क्योंकि देवों का एक दिन-रात मनुष्यलोक के सौ वर्ष के बराबर होता है, अतः एक दिन का भी विलम्ब होने पर वहां मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाता है।) पुनः, मनुष्यलोक इतना दुर्गन्धित और अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण देव मनुष्यलोक में आना नहीं चाहते हैं। अतः, तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने