________________ राजप्रश्नीयसूत्र में चार्वाक मत का प्रस्तुतिकरण _ एवं समीक्षा जैन आगमों में चार्वाक दर्शन के देहात्मवादी दृष्टिकोण के समर्थन में और उसकेखण्डन केलिए तर्कप्रस्तुत करने वाला सर्वप्रथम राजप्रश्नीयसूत्र है। यही एकमात्र ऐसा प्राकृत आगम ग्रंथ है, जो चार्वाक दर्शन के उच्छेदवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष- दोनों के संदर्भ में अपने तर्क प्रस्तुत करता है। राजप्रश्नीय में चार्वाकों की इन मान्यताओं के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है१. राजा पएसी कहता है- हे केशीकुमार श्रमण! मेरे दादा अत्यंत अधार्मिक थे। आपके कथानुसार वे अवश्य ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह को अत्यंत प्रिय था, अतः मेरे पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयंविया (श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक कृत्य करता था, यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालन-रक्षण नहीं करता था। इस कारण बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके मैं नरक में उत्पन्न हुआ हूं, किंतु हे पौत्र! तुम अधार्मिक मत होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन-रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप- कर्मों का उपार्जन-संचय ही करना। देहात्मवादियों के इस तर्क के प्रतिउत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न समाधान प्रस्तुत किया- हे राजन्! जिस प्रकार तुम अपने अपराधी को इसलिए नहीं छोड़ देते हो कि वह जाकर अपने पुत्र-मित्र और ज्ञातिजनों को यह बताए कि मैं अपने पाप के कारण दण्ड भोग रहा हूं, तुम ऐसा मत करना। इसी प्रकार नरक में उत्पन्न तुम्हारे पितामह तुम्हें प्रतिबोध देने के लिए आना चाहकर भी यहां आने में समर्थ नहीं हैं। नारकीय जीव निम्न चार कारणों से मनुष्यलोक में नहीं आ सकते, क्योंकि उनमें नरक से निकलकर मनुष्यलोक में आने की सामर्थ्य ही नहीं होती। (देखें- राजप्रश्नीयसूत्र, सं. मधुकरमुनि सूत्र 242-260) नरकपाल उन्हें नरक से बाहर निकलने की अनुमति भी नहीं देते। तीसरे, नरक सम्बंधी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने से वहां से नहीं निकल पाते। चौथे, उनका नरक सम्बंधी आयुष्यकर्म जब तक क्षीण नहीं होता, तब तक वे (161)