________________ यह लिपि ईसवी सन् के पूर्व ५वीं शताब्दी में अरमई लिपि में से निकली है (मुनि पुण्यविजय, वही, पृ.८)। ललितविस्तरा (पृ.१२५ आदि) में 64 लिपियों का उल्लेख है, जिनमें ब्राह्मी बाएं और खरोष्ट्री दाएं से बाएं लिखी जाती थी। खरोष्ट्री लिपि लगभग ईसवी सन् के पूर्व 500 में गंधार देश में प्रचलित थी। आगे चलकर इस लिपि का स्थान ब्राह्मी लिपि ने ले लिया। इसी लिपि में से आजकल के नागरी लिपि के पुक्खरसारिया, भोगवती, पहराइया, अंतक्खरिया (अंताक्षरी), अक्खरपुट्ठिया, वैनयिकी, निह्नविकी, अंकलिपि, गान्धर्वलिपि, आदर्श लिपि, माहेश्वरी दोमिलिपि (द्रविडी), पौलिन्दी 1 / ज्ञानार्थ- ये पांच प्रकार के हैं - आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। दर्शन-आर्य - सराग दर्शन, वीतराग दर्शन। सराग दर्शन-निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि, धर्मरुचि, संक्षेपरुचि, धर्मरुचि। वीतराग दर्शनउपशांतकषाय, क्षीणकषाय। चारित्रार्य-सराग चारित्र, वीतराग चारित्र। सराग चारित्र- सूक्ष्मरांपराय, बादरसंपराय। वीतराग चारित्र-उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, अथवा चारित्रार्य पांच होते हैं - सामाजिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यातचारित्र (37) / ये देव चार प्रकार के होते हैं - भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी और वैमानिक। भवनवासी के भेद-असुरकुमर, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, विशाकुमार, वायुकुमार, स्तनित कुमार, व्यंतर किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्र्धव, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच। ज्योतिषी-चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा। वैमानिक- कल्पोपग, कल्पोपपन्न। कल्पोपग-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत। कल्पातीत- ग्रैवेयक, अनुत्तरौपपातिक। ग्रैवेयक नौ होते हैं। अनुत्तरौपपातिक -ये पांच हैं- विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि (38) / -