________________ نی نی आर्य में की गई है। श्वपच, पाण, डोंब आदि को जैन ग्रंथों में जातिगँगित कहा है। क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान को उग्र कहा गया है, देखिए - मनुस्मृति तथा आचारांग-नियुक्ति। तत्त्वार्थभाष्य (3.14) में कुलकर, चक्रवर्ती , बलदेव आदि की गणना कुल-आर्य में की गई है। अनुयोगद्वारसूत्र (पृ.१३६ अ) में तृणहारक, काष्ठहारक और पत्रहारक की भी गणना की गई है। तत्त्वार्थभाष्य (3.14) में यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, प्रयोग, कृषि लिपि, वाणिज्य, योनिपोषण से आजीविका चलाने वालों को कर्म- आर्य में गिना है। उत्तरकालवर्ती जैन ग्रंथों में मयूर-पोषक, नट, मछुए, धोबी आदि को कर्म-जुंगित कहा है। --------------- अनुयोगद्वारसूत्र में कुम्भकार, चित्तगार, णंतिक्क (कपड़ा सीने वाला) कम्मगार, कासव (नाई) की पांच मूल शिल्पकारों में णना की गई है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (पृ. 193) में नव नारु में कुम्भार, पटेल, सुनार, सूपकार, गन्धर्व, नाई, माली, काछी, तंबोली तथा नव कारु में चमार, कोल्हू आदि चलाने वाला, गांछी, छीपी, कसारा, दर्जी, गुआर (ग्वाला), भील और धीवर की गणना की गई है। उत्तराकालवर्ती जैन ग्रंथों में चमार, धोबी और नाई आदि को शिल्प-जुंगित कहा है। जैन-परम्परा के अनुसार ऋषभदेव ने अपने दाहिने हाथ से यह लिपि अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिखाई थी, इसलिए इसका नाम ब्राह्मी पड़ा (आवश्यकचूर्णि, पृ.१४६)। भगवतीसूत्र (पृ.७) में ‘णमो बंभीए लिवीए' कहकर ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। इससे मालूम होता है कि जैन आगम पहले इसी लिपि में लिखे, इस लिपि में ऋ, लु, लु और को छोड़कर 46 मूलाक्षर (माउयक्खर) बताए गए हैं (समवायांग, पृ. ५७अ)। ईसवी सन् के पूर्व 500-300 तक भारत की समस्त लिपियां ब्राह्मी के नाम से कही जाती थीं। (मुनि पुण्यविजय, भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला)। . (138