________________ होता है, क्रियमाण व्यवस्था में नहीं। इस बात का प्रवर्तक जमालि' था। -जीवप्रदेशिक : जीव में एक भी प्रदेश के पूर्ण होने पर वह एक प्रदेश हो जीव है। तिष्यगुप्त इस मत के प्रवर्तक माने जाते अवक्तव्यवादी : इस मत के अनुसार समस्त जगत् अव्यक्त है। कौन वस्तुतः क्या है, यह बताना कठिन है। आषाढ़ाचार्य इस मत के प्रवर्तक कहे जाते हैं। सामुच्छेदिक : ये लोग सत्ता को क्षणस्थायी स्वीकार करते हैं। अश्वमित्र इस मत के संस्थापक माने जाते हैं। वस्तुतः, यह मत बौद्ध परम्परा से प्रभावित है। दोहियावादी .: इस मत के अनुसार जीव एक ही समय में शीत और उष्ण वेदना का अनुभव करता है। गंगाचार्य इस मत के प्रवर्तक हैं। भैराशिक : ये लोग जीव, अजीव और नोजीव रूप त्रिजीव रूप .. त्रिराशि को मानते हैं। रोहगुप्त इस मत के प्रवर्तक हैं। इस उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि औपपातिकसूत्र के इस अंश की रचना वी.नि.संवत् 584 अर्थात् ईसा की प्रथम शती के बाद ही हुई है। राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के कथानक में जिनभवन, प्रेक्षागृह आदि का जो वर्णन उपलब्ध होता है, उससे यह विदित होता है, उस काल तक शिल्पकला, नृत्यकला आदि सम्यक् प्रकार से विकसित हो गई थीं। उस काल में विशाल प्रेक्षागृह बनने लगे थे और लोग उनमें बैठ वाद्य, नृत्य आदि का आनंद लेते थे। राजप्रश्नीय में निम्न वाद्यों का उल्लेख उपलब्ध है शंख, श्रृंग, श्रृंगिका, खरमही (काहला), पेया (महती), पिरिपिरिका (कोलिकमुखा वनद्धमुखवाद्य), पणव (लघुपटह) पटह, भभा (ढक्का), होरम्भा (महाढक्का), भैरो (ढक्काकृति वाद्य), झल्लरी (चर्मविनद्धा पिस्तोर्णवलयाकारा), दुन्दुभी (भेर्याकारा संकटमुखी देवातोद्य), मुरज (महांप्रमाण मर्दल), मृदंग (लघु मर्दल), नंदी मृदंग (एकतः संकीर्ण अन्यत्र विस्तृतों मुरजविशेषः) आलिंग (मुरज वाद्य विशेष'), कुस्तुंब (चमुवनद्धपुटो (121)